अप्रैल 11, 2009

...इस दुनिया को बस अब बदलना चाहिए

इतिहास और भूगोल कभी भी न तो मेरे पाठ्यक्रम में शामिल थे न मेरे पसंदीदा विषयों की सूची में, लेकिन अब मुझे लगता है कि ये दोनों महत्वपूर्ण विषय अगर मैंने पढे होते तो समाज के बारे में, दुनिया के बारे में मेरी समझ बहुत बेहतर होती। तब शायद अफगानिस्तान मेरे लिए पाकिस्तान की सीमा से लगा एक मुश्किल भौगोलिक परिस्थितियों वाला, अलकायदा को पनाह देने वाले एक मुसलिम देश के अलावा कुछ और भी होता। तब शायद मैं जान पाती कि वहां पारदर्शी पानी से भरी नदियां भी हैं और लहलहाते खेत भी थे। इतिहास मुझे बताता कि कैसे ताकतवर देश अपनी बादशाहत के लिए किसी दूसरे देश को बरबादी की किस हद तक ले जा सकते हैं। कट्ठरवादिता कैसे मासूम बच्चों को तालिबान बना देती है, मुजाहिदीन बना देती है, जिंदा बम बना देती है यह सब मुझे बेहतर तरह से मालूम हो पाता।


तब शायद मुझे यह बात समझनी ज़्यादा आसान लगती कि किसी भी देश में ज़्यादातर आम लोग होते हैं जो गिने-चुने लोगों की सियासतों के बीच जीते हैं। यह भी पता होता कि वहां कट्ठरपंथियों की दहशत तले भी लङकियां प्यार करती हैं, परिवार बनाती हैं। वहां भी लाल-लाल गालों वाले खूबसूरत बच्चे गलियों में वही खेल खेलते हैं जो सारी दुनिया के सारे बच्चे खेलना जानते हैं। शायद तब ये सोचना ज़्यादा स्वाभाविक लगता कि वहां भी बच्चे मां की आंख का तारा होते हैं और जब वो किसी और की लङाई कि ज़िहाद समझ कर लङते हुए जवान होने से पहले ही मर जाते हैं तो उस मां का दुख दुनियां में किसी भी मां के दुख जैसा होता है।


पिछले दिनों अफगानी लेखक खालिद हुसैनी की दूसरी किताब a Thousand splendid suns पढने के बाद मुझे शिद्धत से इस बात का अहसास हुआ कि अखबारी खबरों से किसी समाज को किसी खास छवि में बांध देना कितना गलत है। पेशे से डॉक्टर खालिद हुसैनी अफगानिस्तान में पैदा हुए और अस्सी के दशक में उनका परिवार शरणार्थी के रूप में अमेरिका जा बसा। दो-ढाई साल पहले उनकी पहली किताब the kite runner पढी थी जो मुझे बहुत अच्छी लगी। यह एक मर्मस्पर्शी कहानी है सत्तर के दशक में काबुल में रहने वाला १२ साल का बिन मां का आमिर अपने प्रभावशाली पिता की नजर में खुद को बहादुर साबित करना चाहता है। इसके लिए स्थानीय स्तर पर होने वाले पतंगबाजी मुकाबले को जीतना उसका लक्ष्य है। आमिर यह मुकाबला जीत जाता है लेकिन उसी दिन उसके खास दोस्त हसन के साथ हुआ हादसा उसे गहरी आत्मग्लानी से भर देता है। अपनी कमतरी को छिपाने के लिए वह हसन पर चोरी का आरोप लगा कर अपने अहाते में बने नौकरों वाले घर से निकलवा देता है। आगे चल कर दोनों की जिंदगियां क्या मोङ लेती हैं, वो है इस उपन्यास की कहानी। हालांकि आमिर और हसन दोनों में से कोई भी नायक नहीं है, इसका मुख्य पात्र है दिनों दिन बद से बदहाल होता अफगानिस्तान। बदलते राजनीतिक हालत किस तरह से आम आदमियों की जिंदगियों की दशा दिशा कैसे बदलते हैं, इसे एक बहुत ही दिलचस्प कहानी के जरिए कहा गया है the kite runner में।


पिछले दिनों जब मैंने खालिद हुसैनी की A thousand splendid suns पढी तो ज्यादातर हिस्सा डबडबाई आंखों से ही पढा गया। ये बहुत उदास लेकिन बहुत खूबसूरती से लिखी गई किताब है। यहां भी कहानी का मुख्य पात्र अफगानिस्तान ही है। लेकिन यहां औरतों की दुनिया में झांका गया है। इस कहानी में एक मरियम है और एक लैला है। एक अमीर बाप की अवैध संतान है और एक तरक्कीपसंद पिता की लाङली। एक अपने पिता को शर्मिंदगी को छिपाने की मजबूरी में और दूसरी बम विस्फोट में परिवार को खो देने के बाद बने हालातों में एक ही आदमी की बीबी बनती हैं। 15 साल की मरियम से जब राशिद ने शादी की तो उसकी उम्र थी लगभग 45 साल और 27 साल बाद जब उसने दूसरी शादी की तो लैला की उम्र भी 15 ही साल थी। ये अफगानिस्तान की औरतों की बेबसी और उससे मुक्त होने की उनकी कोशिशों की कहानी है।


ये बिल्कुल संयोग ही था कि इस किताब के बाद मैंने जो फिल्म देखने के लिए चुनी वो थी पाकिस्तान के फिल्मकार सोएब मंसूर की 'खुदा के लिए' । संयोग इसलिए कि खालिद हुसैनी की दोनों किताबें और यह फिल्म एक सी नहीं तो काफी मिलती जुलती सी परिस्थितियों की कहानी कहती हैं । फिल्म 'खुदा के लिए' बहुत तर्कसंगत रूप से पाकिस्तान के बारे में आम आदमी की गलतफहमियों को दूर करती है। यह 9/11 के बाद पाकिस्तान के आम तरक्की पसंद मुसलमान की कशमकश को बयान करती एक बढिया फिल्म है । इस फिल्म का सबसे प्रभावशाली हिस्सा वो है जहां ब्रिटेन में रह रहा एक पाकिस्तानी अपने दीन की हिफाज़त के लिए बेटी मरियम को धोखे से पाकिस्तान ले जा कर उसे बिना बताए उसकी शादी कर अफगानिस्तान के एक गांव में छोङ आता है। यह एक रोंगटे खङे कर देने वाला दृश्य है। यह फिल्म इस्लाम के नाम पर फैले बहुत से भ्रमों को बहुत खूबसूरती के साथ दूर करती है।एक खालिद की मरियम है जो कुरान के कुछ अक्षर बांच पाती है और जो दुनिया के बारे में बस उतना ही जानती है जितना बचपन में उसके पिता ने और शादी के बाद उसके पति ने बताया। सोएब मंसूर की मरियम इंग्लैंड में पली बङी आज़ाद खयाल लङकी है। लेकिन विडंबना देखिए कि दोनों के बाप उनकी मर्जी के खिलाफ उनकी जबरन उनकी शादियां करवाते हैं। आखिर क्यों होता है औरतों के साथ ‌ऐसा हर कहीं?

ये दोनों किताबें और यह फिल्म काफी पहले आ चुके हैं लेकिन चूंकि मैंने ये अब पढीं और देखी और मन किया कि लिखूं सो लिख डाला।