जुलाई 20, 2009

एक सफर मंज़िल का

कल रात एक फिल्म देखी "दि डेड पोएट्स सोसायटी" , यह बोर्डिंग में पढ़ रहे कुछ किशोरों और उन्हें कविता पढ़ाने वाले अध्यापक (रोबिन विलियम्स) के बीच के भावनात्मक संबंधों की कहानी है। जी नहीं, यह पोस्ट इस फिल्म के बारे में नहीं है। दरअसल यह फिल्म देख कर मुझे एक और अध्यापक याद आया जो इस फिल्म के अध्यापक की तरह ही न केवल बच्चों का चहेता है बल्कि उनकी प्रेरणा का स्रोत भी है। उनके बारे में मैं बहुत दिनों से लिखना चाह रही थी लेकिन न जाने किन वजहों से लगातार टलता जा रहा था। बहरहाल इस फिल्म ने एक तरह से उकसाने का काम किया इसलिए आज की पोस्ट रवि यानि रवि गुलाटी के नाम।

रवि गुलाटी दिल्ली में कम आयवर्ग के बच्चों के लिए अपने घर में ही मंज़िल नाम से एक स्कूल चलाते हैं। घर का मतलब अगर आश्रय से होता है तो रवि का घर अपने अर्थ को पूरी संपूर्णता के साथ सार्थक करता है। उनकी बहन सोनिया का गर्मजोशी भरा स्वागत, निश्चल हंसी और निरंतर चलने वाली बातें पहली बार आने वालों को भी पुराने दोस्तों का सा सहज बना देती है। फिर आप मिलते हैं ममत्व को नए अर्थों में परिभाषित करती रवि की मां श्रीमति इंदिरा गुलाटी से, जिन्होंने अपनी जिंदगी के पिछले 35-40 साल खास जरूरतों वाले बच्चों को इस कठिन दुनिया में जीने के सबक देने में बिताए हैं। वह अब भी पूरी सक्रियता के साथ जुटी रहती हैं मंज़िल के कोटला मुबारकपुर वाले केंद्र से संचालित होने वाले अपने सेवा कार्यों में।

रवि के बारे में सबसे ज्यादा प्रभावशाली चीज़ है सादगी जो उनके बेपरवाह पहनावे से ले कर समाज व दुनिया के बारे में संजीदा सोच सब में बहुत साफ नज़र आती है। कहीं शब्दों का आडंबर नहीं, कहीं अपने विचारों को सही ठहराने की आक्रमकता नहीं, कोई लाग-लपेट नहीं बस सीधी सच्ची व्यवहारिक बात। वह अमेरिकी साम्राज्यवाद की आलोचना करते हैं बिना उत्तेजित हुए शांति से अपने तर्क देते हुए। कभी गांधी की किसी बात की सार्थकता साबित करेंगे बहुत साधारण लेकिन अकाट्य उदाहरण के साथ। दूसरे की बात को पूरा महत्व देते हुए सुनना उनकी एक और विशेषता है। दोस्तों की मंडली में गिटार के सुरों पर अंग्रेजी गाने गाते-गाते वह उसी तन्मयता के साथ मालवा शैली में कबीर भी गाने लगते हैं।


रवि गुलाटी दिल्ली के धनपतियों के इलाके खान मार्केट में रहते हैं लेकिन उनकी बाबस्तगी पङोस के आलीशान घरों की बजाय उनके सर्वेंट क्वार्टस में रहने वाले नौकरों, धोबियों, साइकिल की दुकान पर काम करने वाले कारीगरों जैसे कम आयवर्ग के लोगों से रही है। सीमित आय में जैसे-तैसे गुज़ारा करके भी अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिला कर बेहतर भविष्य का सपना देखते इन लोगों के सपनों को सच बनाने के लिए रवि ने अपने घर के दरवाजे उन बच्चों के लिए खोल दिए और उसे नाम दिया मंज़िल। हालांकि रवि ने आईआईएम, अहमदाबाद से गुर तो कॉरपोरेट प्रबंधन के सीखे लेकिन मंज़िल में उनकी भूमिका अध्यापक की रही। बच्चों को पढ़ाते हुए उन्हें अहसास हुआ कि हमारे स्कूलों में पढ़ाने के तरीके कितने गलत हैं, वो सिर्फ रटना सिखाते हैं, जानना नहीं। उन्होंने बच्चों को दिलचस्प और सरल तरीके से गणित और अंग्रेजी सिखानी शुरू की।

मंज़िल में 1998 से बच्चों के आने का सिलसिला जो शुरू हुआ वो अब तक जारी है। यहां बच्चे गणित, अंग्रेजी और कंप्यूटर खुद पढ़ते भी हैं और दूसरे बच्चों को पढ़ाते भी हैं। यहां सिर्फ पढ़ाई ही नहीं, गाना- बजाना, थियेटर, कला सब कुछ होता है। यहां के बच्चों का एकम् सत्यम नाम से अपना एक म्यूज़िक बैंड भी है। मंज़िल इन बच्चों के लिए अपना घर है शायद उससे कुछ ज्यादा ही है। यह जगह हमेशा गुलज़ार रहती है उनके शोर से, गीत-संगीत से, बातों से। यह जगह हमेशा युवा उर्जा से भरी रहती है जिसे आप वहां उपस्थित हो कर स्वयं महसूस कर सकते हैं। रवि के इस स्कूल में कोई फीस नहीं ली जाती। हालांकि अनुशासन बनाए रखने के लिए कक्षा में देर से आने पर उन्हें मामूली सा जुर्माना देना पढ़ता है।

अधिकांश किशोरवय के इन बच्चों के साथ रवि का व्यवहार हमउम्र जैसा रहता है जिसके चलते उनमें न केवल आत्मविश्वास बढ़ता है बल्कि उनमें नेतृत्व करने जैसे गुण भी विकसित होते हैं। यहां उनकी कल्पनाशीलता, स्वतंत्र सोच को पूरा सम्मान दिया जाता है। यही वजह है कि अब रवि की गैर-मौज़ूदगी में भी मंज़िल का काम-काज बिना किसी रूकावट के चलता रहता है वो चाहे पढ़ाने का काम हो या थियेटर जैसी कोई गतिविधि। यह किसी भी संस्था के कामकाज का आदर्श तरीका है क्योंकि अक्सर व्यक्तिगत प्रयासों से शुरू हुई कोई मुहिम व्यक्ति केंद्रित ही हो कर रह जाती है।

रवि से जब भी कोई पूछता है तुम लोग क्या सिखाते हो बच्चों को तो उनका जवाब हमेशा यही होता है मंज़िल में आओ, मेरे बच्चों से मिलो। सचमुच मंज़िल के बच्चों से मिल कर पता चलता है कि रवि से उन्हें क्या मिला है मूल्यों के प्रति आस्था, आपसी सहयोग से आगे बढ़ने की प्रवृति और आत्मविश्वास से लबरेज़ इन बच्चों में सबसे अच्छी बात यह लगती है कि ये अपनी गरीब पृष्टभूमि को ले कर बिल्कुल भी शर्मिंदा नहीं हैं। वो जानते हैं उन्हें इस जमीन पर खङे हो कर ही ऊंचाइयां छूनी है और वो कोशिश कर रहे हैं। और एक ईमानदार कोशिश से ज़्यादा चाहिए भी क्या? यही वजह है कि इनमें से बहुत से बच्चे, जो दरअसल अब बङे हो चुके हैं, अपनी-अपनी रुचि के कार्यक्षेत्रों में अच्छा काम कर रहे हैं। रवि के दोस्तों का दायरा काफी बङा है, समाज के विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय ये लोग समय-समय पर मंज़िल के बच्चों का मार्गदर्शन करते रहते हैं।

रवि परस्पर संवाद को महत्वपूर्ण मानते हैं इसलिए ये बच्चे रवि भैया से दुनिया-जहान की बातें करते हैं और उन बातों से सीखते हैं कि गरीबी या अंग्रेजी न आना ऐसी कोई चीज़ नहीं हैं जो आगे बढ़ने से रोक पाएं। अंग्रेजी एक भाषा मात्र है जिसे चाहो तो कोशिश करके सीखा जा सकता है। रवि बहुत गर्व से बताते हैं कि मेरे बच्चे अगर कुछ सीखना चाहते हैं तो उसके जानकार के पास पहुंच जाते हैं, अगर कोई सिखाने से मना करता है तो वो किसी दूसरे के पास पहुंच जाते हैं वहां भी सुनवाई न हुई तो फिर अगले के पास पहुंच जाते हैं बिना दिल छोटा किए। वो जानते हैं अगर वो सीखना चाहते हैं तो ऐसे लोग भी हैं जो सिखाना चाहते हैं, इसलिए वो कोशिश करना नहीं छोङते। ये हार न मानने वाली बात रवि का मूलमंत्र है अपने बच्चों के लिए, तो फिर हारने की गुंजाइश है कहां?

रवि को मैं व्यक्तिगत तौर पर जानती हूं और उन्हें जानने वाला हर कोई यह जानता है कि वह कितने निस्वार्थ भाव से यह काम करते हैं। बदले में किसी तरह की पहचान या सम्मान जैसी चीज़ों के बारे में सोचे बिना चुपचाप कुछ जिंदगियों को बेहतर बना रहे रवि जैसे लोग इंसान और इंसानियत की ताकत पर भरोसा बनाए रखते हैं। किशोरावस्था जैसी नाज़ुक उम्र में इन युवा उर्जाओं को सही दिशा दिखाने और उनको आगे बढ़ने में मंज़िल की भूमिका के बारे में और जानना चाहें तो www.manzil.in पर एक नज़र डालना न भूलें।