जुलाई 13, 2010

हम गरीब हैं लेकिन बहुत सारे!

बहुत साल पहले दिल्ली के अपने शुरुआती दिनों में एक हस्तशिल्प प्रदर्शनी में एक स्टॉल पर टंगा कुर्ता मुझे बहुत पसंद आया था। आमतौर पर खरीदारी से बेज़ारी के बावजूद वह कुर्ता मुझे इतना अच्छा लगा कि मैंने दाम भी पूछ लिए थे। बहरहाल तब कीमत बज़ट से बाहर लगी थी और मैंने वह नहीं खरीदा। लेकिन इतने सालों बाद मुझे यह बात अचानक याद आई और पता नहीं क्यों यह कचोट सी हुई मैंने वह कुर्ता क्यों नहीं खरीदा। दरअसल वह स्टॉल SEWA (Self Employed Women Association) का था। यह बात तो तब मुझे पता थी, लेकिन वह कुर्ता किन औरतों ने किन परिस्थितियों में किन उम्मीदों के साथ तैयार किया होगा इसका अंदाज़ा मुझे हाल ही इला आर. भट्ट की लिखी 'We are poor but so many' पढ़ कर हुआ। इस किताब को पढ़ना मेरे लिए एक अद्भुत अनुभव रहा।


गांधीवादी इला भट्ट ने अति गरीब वर्ग की कामकाजी महिलाओं को सेवा संस्था के रूप में न केवल एक मजबूत संठनात्मक रूप दिया बल्कि उन्हें बेहतर स्थितियों में सम्मानजनक जीवन जीने के अवसर प्रदान किए। किताब की प्रस्तावना में उन्होंने एक बहुत महत्वपूर्ण बात पर जोर दिया है वह यह कि आर्थिक सुधारों के केंद्र में अगर महिलाओं को रखा जाए तो बेहतरीन परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं। उनका मूलमंत्र है कि महिलाएं मजबूत और महत्वपूर्ण संगठन खड़ा करने में सक्षम हैं। महिलाएं अपने अनुभवों की मदद से समस्याओं के व्यवहारिक हल निकाल सकती हैं और ऐसा करते हुए वे समाज और पर्यावरण को सकारात्मक रूप से बदलती हैं जो सम्मानजनक, अहिंसक और आत्मनिर्भर है।


महिलाओं की क्षमताओं पर अपने विश्वास को उन्होंने सच साबित करके भी दिखाया। आज देश भर में फैली सेवा से जुड़ी विभिन्न कार्यक्षेत्रों में सक्रिय सात लाख से अधिक महिलाएं न केवल अपनी आर्थिक स्थिति को मजबूत कर रही हैं बल्कि प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से देश की अर्थव्यवस्था में भी अपना योगदान दे रही हैं। इला जी की यह किताब इन्हीं जीवट महिलाओं की कहानी है। यह वही महिलाएं हैं जिनके काम को सरकारी तंत्र पहले काम का दर्ज़ा देने तक से इनकार करता था। इला जी ने अपने प्रयासों से असंगठित रूप से विभिन्न क्षेत्रों में होने वाले इन कामों को चिन्हित कर सबसे पहले विशेष रूप से महिला श्रम संगठन बनाया। यह कदम महिला अधिकारों के क्षेत्र में मील का पत्थर है।


अपनी इस किताब में इला जी ने बहुत प्रभावी तरीके से गरीब कामकाजी महिलाओं की आर्थिक सामाजिक परिस्थितियों का वर्णन किया है। सेवा संस्था की शुरुआत अप्रैल 1972 में शहरी क्षेत्र की अति गरीब कामकाजी महिलाओं के बीच हुई, लेकिन उसका कार्य क्षेत्र बाद में ग्रामीण इलाकों में भी फैल गया। आज यह संस्था गुजरात के अलावा बहुत से अन्य राज्यों में सक्रिय है और लाखों महिलाओं को जीने का हौसला और रास्ता दिखा रही है।


'We are poor but so many' पढ़ना कम से कम मेरे लिए एक आंख खोल देने वाला सा अनुभव रहा। इसमें कपड़ा मिलों से कूड़े के रूप में निकलने वाली चिंदियां बीनने, उन चिंदियों को सिल कर कपड़े तैयार करने, कबाड़ बीनने, रेहड़ी लगा कर सब्जी बेचने जैसे श्रमसाध्य काम करने वाली महिलाओं के संघर्षपूर्ण जीवन का चित्रण झकझोर देता है। पेट की आग बुझाने के लिए शहरों की ओर पलायन करने वाले दिहाड़ी मज़दूर परिवार, उनकी महिलाएं, बच्चे किन हालातों में रहते हैं, कैसे एक-एक दिन का जीवन जीने की लड़ाई लड़ते हैं या कच्छ के सूखेपन को कड़ाई के रंगीन धागों से सजाने वाली महिलाओं को घर से निकल कर अपनी कला को बाजार तक पहुंचाने की जद्दोजहद में परिवार के किन दबावों को झेलना पड़ा, उन सब का जीवंत खाका इस किताब में है। रन ऑफ कच्छ के वीरान तटीय इलाके में नमक बनाते परिवारों की आर्थिक जद्दोजहद बहुत साफ तरीके से समझा देती है कि देश की आर्थिक नीतियों में बहुत सारे तबके हाशिए पर ही रह गए हैं। हाशिए पर खड़ी महिला श्रमिकों को आत्मनिर्भर बनाने की कोशिशों की कहानी है यह किताब।


प्रस्तावना में ही एक और बहुत ही महत्वपूर्ण पहलू की ओर ध्यान दिलाते हुए इला जी ने सांप्रदायिक दंगों को गरीबों का सबसे बड़ा दुश्मन करार दिया है। अपने अनुभवों के आधार पर उनका मानना है कि किसी भी दूसरे कारणों की तुलना में सांप्रदायिक वैमनस्यता गरीबों पर बहुत बेरहमी से मार करती है। सेवा में काम करने के दौरान इला जी ने इस बात को पूरी शिद्दत से महसूस किया कि दंगों की आंच सबसे ज्यादा सबसे गरीब और कमजोर तबके को जलाती है। जरा कल्पना कीजिए उस महिला के दर्द को जो कई साल की मेहनत के बाद सेवा बैंक से कर्ज़ ले कर रहने के लिए एक छोटा घर बनाती है जो एक ही रात में दंगे की भेंट हो जाता है या उस औरत का दुख जिसकी कमाई का साधन कर्ज़ पर ली गई सिलाई मशीन दंगाइयों की मशाल के हवाले हो जाए। यह सच्ची दुनिया की कहानियां हैं जिन्हें इला जी ने इस किताब के जरिए सुनाने की कोशिश की है।


यह किताब महिलाओं के बीच किए गए उनके कामों का लेखा-जोखा होने के साथ हमारे समाज के जटिल खांचे को समझने के लिए एक बहुत अच्छी अध्ययन सामग्री है। इला जी ने बहुत ही संवेदनशील तरीके से राजनीति, अर्थव्यवस्था और जातिगत भेदभाव में लिपटी हमारी सामाजिक व्यवस्था के ताने-बाने को बहुत पैनेपन के साथ देखा, समझा और फिर कामकाजी गरीब महिलाओं को साथ ले कर उन्हीं के अनुभवों की मदद से आगे बढ़ने के रास्ते बनाए।


आज के दौर में हर कोई माइक्रोफाइनेंस की बात करता है लेकिन इलाजी ने कई साल पहले ही इसकी संभावना को पहचान लिया था और उसी का परिणाम था सेवा बैंक। इस बैंक की स्थापना ने कई मायनो में कई मिथकों को तोड़ा। बिल्कुल निचले आर्थिक तबके की महिलाओं की छोटी-छोटी बचत एक बैंक का मजबूत आधार बन सकती है यह बात ही अपने आप में अनूठी थी। अनिश्चित कमाई वाली महिला श्रमिकों पर भरोसा करके बैंक खोलने जैसा बड़ा कदम उठाना इला जी की मजबूत इच्छाशक्ति को दिखाता है। आर्थिक सलाहकारों ने इस फैसले को बेवकूफी भरा करार दिया था, लेकिन आज सेवा बैंक की सफलता सबके सामने है। सेवा बैंक से ऐसी महिलाओं को कर्ज़ मिलता है जिन्हें मुख्यधारा के बैंक कर्ज़ देना तो दूर आस-पास भी न फटकने दें।


यह किताब हमारे समाज के इतने सारे पहलुओं को छूती हुई निकलती है कि इसे संपूर्णता के साथ ले कर समीक्षा कर पाना मेरे लिए मुश्किल हो रहा है। इस किताब के बारे में एक समीक्षक का कहना है कि, ' अगर आपको प्रेरणा लेनी है तो यह किताब पढ़िए। अगर आप जानकारी चाहते हैं तो यह किताब पढ़िए और अगर आप गरीबों को संगठित कैसे किया जाए यह जानना चाहते हैं तो यह किताब पढ़िए।' मुझे लगता है कि देश को समझने और उसे बेहतर बनाने की नियत रखने वाले हर जागरूक नागरिक को यह किताब पढ़नी चाहिए।