जून 03, 2011

दूर छिपे उन दिनों का सपना

(आज लगभग दस सालों बाद लिखी गई कवितानुमा कोई चीज़)
अखबार के पहले पन्ने पर रोते-बिलखते लोग
बम फटने से मरे लोगों के परिजन
बसे रहते हैं दिन भर मन में कहीं
अंधेरी डरी रात में खुली आतंकित आंखों में
धीरे से उतरता है एक सपना


दूर अनंत में छिपे दिनों का
जिनमें हमेशा घर लौटेंगे हंसते हुए पिता,
बच्चों के लिए दूर तक पसरा होगा मां का आंचल
तब खून सिर्फ रगो में दौड़ने वाली चीज़ ही होगा
सड़क जैसी सार्वजनिक जगहों पर फैलने वाला रंग नहीं
गीत होंगे बहुत सारे और खूब रंग भी
किलकारियां, रोशनी और खुशियों जैसी होंगी बहुत सी चीज़ें
हां...हां...हरे पेड़, चमकदार पानी और खूशबूदार हवा जैसी
ज़रूरी चीज़ें तो होंगी ही!!!


नहीं होंगी तो बम, हथियार जैसी फालतू चीज़ें
तोप, फौजें और लड़ाके ज़रूरी नहीं होंगे उन दिनों में
हां वर्दी वाले चाहें तो खड़े हो सकते हैं
उस मैदान के चारों ओर...जहां बच्चे खेलते हैं मनचाहे खेल
और कर सकते हैं मैदान से बाहर आ गिरी गेंद को
फिर से बच्चों को थमाने जैसा ज़रूरी काम


आतंक के बीच नींद से रीती आंखों में
अनंत में छिपे उन दिनों का सपना चुभता क्यों है???