मार्च 13, 2009

ये रंग होली के नहीं हैं….


आंखे पहले हाथ में पकङाई गई चीज़ पर नज़र डालती हैं और फिर शर्मिली मुस्कराहट के साथ जब वो मुझे दोबारा देखती हैं तो एक खास किस्म की खुशी से चमक रही होती हैं। लगभग हर बच्चे की प्रतिक्रिया एक सी होती है। हर बार बच्चों की आंखों में वो चमक देख कर मैं सोचती हूं कि इस बार तो अतिमा भाभी को फोन करके एक बहुत बङा वाला धन्यवाद देना है जिनकी वजह से किसी को खुश करने के खुशगवार पल मुझे मयस्सर होते हैं। बच्चों को उल्लास से भर देने वाली वो भेंट होती हैं खूब सारे पेंसिल वाले रंग।


पिछले तीन-चार साल से कम से कम दो सौ बच्चों को रंगीन पेंसिलों के तोहफे मेरे हाथों से बंट चुके हैं। ये वो बच्चे हैं जिनके लिए रंगीन पेंसिलें खरीद पाना मुश्किल नहीं तो आसान भी नहीं हैं। आमतौर पर निम्न आयवर्ग परिवार के इन बच्चों के अभिभावकों के लिए उनके लिए बहुत जरूरी चीजें जुटा पाना भी मुश्किल होता है। कापी-किताब और पेंसिल या पेन मिल जाए वही बहुत है। ऐसे में अच्छी क्वालिटी की भले ही थोङी बहुत इस्तेमाल की हुई बीस-पच्चीस पेंसिल वाले रंगों का तोहफा बच्चों के खास ही होता है।


थोङी बहुत इस्तेमाल की हुई ये पेंसिलें मेरे पास पहुंचती हैं अतिमा भाभी के द्वारा सिंगापुर से। भाभी का पूरा नाम अतिमा जोशी है जो अपने पति नीरज जोशी और एक किशोरवय बेटी नीतिमा के साथ सिंगापुर में रहती हैं और एक स्कूल में पढाती हैं। वहां पढाते हुए उन्होंने देखा कि उनकी क्लास में बच्चे स्टेशनरी का बहुत ही लापरवाही के साथ इस्तेमाल करते हैं। पेन, पेंसिल, रंग, पेंसिल शार्पनर जैसी चीजें थोङे से प्रयोग के बाद फेंक दी जाती हैं।


हिंदुस्तान जैसे देश में मध्यमवर्गीय परिवार में पले-बङे संस्कारी मन से ये बरबादी हजम न होनी थी न हुई। सो उन्होंने बेकार समझ कर फेंक दी गई उन रंगीन पेंसिलों को इकट्ठा करना शुरू किया और अपनी सालाना यात्रा में जब हिंदुस्तान आईं तो रंगों की वो पोटली साथ लाना नहीं भूलीं। अच्छी खासी भर चुकी उस पोटली से कुछ रंग उन्होंने खुद बांटे और कुछ मुझे दे दिए। लगभग तीन साल पहले शुरू हुआ यह सिलसिला तब से बरकरार है।


यहां इस पोस्ट का मकसद किसी को महिमामंडित करना नहीं है बल्कि सिर्फ यह बताना भर है कि थोङी सी सकारात्मक सोच और थोङी सी पहल थोङी सी ही सही लेकिन इतने सारे बच्चों के लिए खुशी का सबब बन गई। बच्चों की दुनिया को रंगीन बनाने के लिए यह छोटी सी पहल भी कितनी महत्वपूर्ण है, हाथ में पेंसिल पकङे बच्चे की उछाह भरी मुस्कान मुझे बहुत अच्छी तरह से बता देती है।

मेरे ब्लॉग पर आने वाले सभी परिचित, अपरिचित मित्रों को होली मुबारक। इस होली में रंग न केवल तन को बल्कि मन और सपनों को भी रंगें।

जनवरी 07, 2009

नए साल के बहाने

'इससे पहले कि बात टल जाए.....' रेडियो पर गुलाम अली ने अपनी दिलकश आवाज़ में गज़ल की शुरूआत जैसे मुझे चेताने के लिए ही की थी। अचानक मुझे याद आया कि नए साल में मेरा खुद से यह वादा है कि नियमित रूप से कुछ न कुछ लिखना जारी रखूंगी। लेकिन हालत देखिए, गुलाम अली साहब ने याद न दिलाया होता तो साल का पहला हफ्ता तो बस यूं ही गुजर जाता। सो इससे पहले कि वक्त टल जाए, कुछ बातें हो ही जाएं।

गया साल जाते-जाते उदासी भरी टीस दे गया, कुछ को आर्थिक तौर पर बरबाद कर गया और अधिकांश को आतंकित करके गया। आम आदमी कुछ दिन चीखने-चिल्लाने, इस-उस को दोष लगाने, कुछ को गरियाने के बाद कलपते दिल पर आने वाले साल के बेहतर होने की उम्मीद का फाहा रख कर शांत बैठ गया। दरअसल उम्मीद चीज़ ही ऐसी है। हम गहरे से गहरा दुख बेहतर कल की उम्मीद के साथ झेल जाते हैं, पल-पल सरकता समय भी हमें बीते वक्त के सुख-दुख को बिसरा आने वाले समय को आशा भरी नजरों से देखने के लिए तैयार करता है। शायद यही वजह है कि हर कोई यह जानते हुए भी कि नया साल बीत चुके बहुत सारे दिनों जैसा ही एक आम दिन है, उसे खास अहमियत देता है, उसका स्वागत करता है।

यहां सोनापानी में हम लोग हर साल 30-31 दिसंबर को कुछ खास तरीके से मनाने की कोशिश करते हैं। इन दिनों यहां बेतरह ठंड होती है। हालांकि दिन में चटखदार धूप खिली होती है लेकिन जहां शाम के चार बजे कि हवा बर्फीली होने लगती है, पाला गिरने के कारण ठंड और मारक होती है। लेकिन जब आप अलाव के आस-पास बैठे दिलकश संगीत का मज़ा ले रहे हों तो यह सर्दी लुत्फ भी उतना ही देती है। इस बार 30 दिसंबर को हमने मुंबई के अरण्य थियेटर ग्रुप के नए नाटक ‘द पार्क’ का प्रिमियर यानी पहला शो किया जो खासा पसंद किया गया। यह नाटक मानव कौल ने लिखा है जो इससे पहले ‘शक्कर के पांच दाने’, ‘पीले स्कूटर वाला आदमी’, ‘बल्ली और शंभू’, ‘इलहाम’ और ‘ऐसा कहते हैं’ जैसे कथ्य की दृष्टि से काफी सशक्त नाटक लिख चुके हैं। मुंबई, दिल्ली के नाटक जगत में उनके नाटक खासे चर्चा में रहते हैं।

उनके नए नाटक ‘द पार्क’ की चर्चा यहां न करके उसका अलग से रिव्यू देने की कोशिश मेरी रहेगी। 31 दिसंबर की शाम संगीत से लबरेज़ थी। यह एक खास तरह का संगीत था। इसमें दरअसल हिंदी के कई सारे हिंदी कवियों की उन कविताओं को गाया गया जिन्हें किसी न किसी नाटक में इस्तेमाल किया गया है। शब्द संगीत नाम से पेश की गई यह प्रस्तुति बहुत ही शानदार रही। अरण्य थियेटर ग्रुप के 14 युवा स्वरों ने जयशंकर प्रसाद, नागार्जुन, निराला के साथ-साथ गोरखपांडे, बल्ली सिंह चीमा जैसे समकालीन कवियों की रचनाएं गाईं। रंगमंचीय संगीत के पुरोधा ब.ब.कारंत की धुन में बंधी प्रसाद की रचना ‘बीती विभावरी’ से जब कार्यक्रम की शुरुआत हुई तो बस समां बंध गया। इसके बाद निराला की ‘बांधों न नाव इस ठांव बंधु’ और ‘बादल छाए, बादल छाए’ गाए गए। ‘बांधों न नाव’ को गोपाल तिवारी की प्यारी सी धुन में गाया गया। श्रोताओं में आठ-दस लोग विदेशी थे जो हिंदी नहीं जानते थे लेकिन गीतों की सुंदर धुनों ने उन्हें इस कदर बांधा कि उन्होंने लगभग तीन घंटे चले इस पूरे कार्यक्रम का पूरा आनंद उठाया। नागार्जुन की रचना ‘पांच पूत भारत माता के’ बच्चों के बीच खास तौर पर पसंद की गई। । गोपाल तिवारी ने अपना एक खूबसूरत गीत ‘रब्बा रोशनी कर तू' पेश किया जो बहुत पसंद किया गया।

नैनीताल वाले हमारे मंटूदा की धुन में बंधे कवि बल्ली सिंह चीमा जी के गीत ‘बर्फ से ढक गया है पहाङी नगर’ को जब गाया गया तो सोनापानी में हमारे साथ काम करने वाले लङके भी साथ-साथ गा रहे थे। दरअसल मुंबई में रहने वाला हमारा दोस्त गोपाल तिवारी सोनापानी की अपनी पिछली यात्राओं के दौरान उन्हें यह गीत याद करा चुका था। यह उन्हें इतना अच्छा लगता है कि अक्सर रसोई से समवेत स्वर में इस गाने की आवाज आती रहती है। अब तक संगीत के नाम पर फिल्मी गीतों को ही जानने वाले इन लङकों को बेहतर संगीत को जानते और उसका आनंद लेते देखना अच्छा लगता है। युवा जोशीली आवाजों पर तैरते गोरखपांडे के गीत ‘समय का पहिया चले रे साथी’ ने माहौल में गर्माहट भर दी। गोरखपांडे का यह गीत समय के बारे में कहता है…।
रात और दिल, पल-पल छिन-छिन आगे बढता जाए
तोङ पुराना नए सिरे से सब कुछ गढता जाए

इस उम्मीद के साथ कि पुराना जो सङ चुका है, अप्रासंगिक हो चुका है टूटेगा उसकी जगह कुछ नया रचा जाएगा जो अच्छा होगा, सच्चा होगा, आप सभी को नया साल मुबारक हो।

अगस्त 14, 2008

रिमझिम बारिश के बीच पहाङी खाना

इन दिनों पहाङ झमाझम बारिश में भीग रहे हैं। हर तरह के पेङ-पौधे अपने सबसे सुंदर हरे रंग को ओढे हुए हैं। बादल आसमान से उतर कर खिङकियों के रास्ते घर में घुसे आ रहे हैं। आप छोटे-छोटे खिङकी-दरवाजों वाले एक पुराने लेकिन आरामदायक घर के अंदर बैठे छत की पटाल (स्लेट) पर लगातार पङ रही बूंदों की टापुर-टुपुर का आनंद ले रहे हों तो इस भीगे-भीगे से मौसम में खाने का ख्याल आना स्वाभाविक ही है। खाने की शौकीन होने के कारण मेरे लिए अच्छा मौसम भी एक बढिया बहाना है कुछ खाने का या कम से कम खाने को याद करने का :)। कभी-कभी मुझे आश्चर्य होता है की पहाङी खाना इतना विविधतापूर्ण, स्वादिष्ट और पौष्टिक होने के बावजूद पहाङ से बाहर लोकप्रिय होने में कामयाब क्यों नहीं रहा ? शायद रंगरूप और नामों का खांटी भदेस होना इसकी एक वजह रही हो।

बहरहाल, आजकल खेतों में अरबी, सेम (beans), शिमला मिर्च, मूली, हरी मिर्च, बैंगन, करेला, तोरी, लौकी, कद्दू, खीरे, टमाटर, राजमा लगा हुआ है। अरबी मेरी पसंदीदा सब्ज़ी है। अरबी को स्थानीय भाषा में पीनालू कहा जाता है और मुझे नहीं लगता कि पहाङ के अलावा कहीं और इसका इतना विविधतापूर्ण इस्तेमाल होता होगा। इसका मुख्य हिस्सा जङ यानि अरबी तो खाई ही जाती है, , इसकी बिल्कुल कमसिन नन्हीं रोल में मुङी पत्तियों को तोङ कर, काट कर सुखा लिया जाता है, जिन्हें गाब या गाबा कहा जाता है। अरबी के के तनों को काट कर सुखा लिया जाता है, जिन्हें नौल कहते हैं। नौल और गाबे की सब्ज़ियों का लुत्फ सर्दियों में उठाया जाता है जब ठंड की वजह से खेतों में सब्ज़ियां बहुत कम होती हैं। इनकी तरी वाली सब्ज़ी चावल के साथ खाई जाती है।

मूली को आमतौर पर सलाद के रूप में खाया जाता है लेकिन कुमाऊंनी खाने में (मोटी जङ वाली मटियाले रंग की पहाङी मूली) यह इतनी गहरी रची-बसी है कि बरसात और जाङों में खाई जाने वाली लगभग सारी सब्ज़ियों चाहे वह राई या लाई की पत्तियां हों या आजकल खेत में हो रही ऊपर लिखी हुई कोई भी सब्ज़ी के साथ मिला कर पकाई जाती है। मूली के साथ इन सब्ज़ियों का मेल बहुत अजीब सा सुनाई देता है न? लेकिन यकींन मानिए खाने में ये लाजवाब होती है। दरअसल पहाङी मूली मैदानी इलाकों में उगने वाली सफेद, सुतवां, नाजुक सी दिखने वाली रसीली मूलियों से न केवल रंगरूप में बल्कि स्वाद में भी बिल्कुल अलग होती हैं। सिर्फ मूली को सिलबट्टे में हल्का सा कुटकुटा कर मेथीदाने से छौंक कर बना कर देखिए, इसे थचुआ मूली कहते है, न कायल हो जाएं स्वाद के तो कहिएगा। मूली को दही के साथ भी बनाया जाता है।


पहाङी जीवन-शैली की तरह ही यहां का खाना भी सादा और आडंबररहित होता है। यही इसकी खासियत भी है। किसी भी सब्ज़ी को किसी के साथ भी मिला कर बनाया जा सकता है, पिछले हफ्ते मैं नैनीताल गई थी, रात को उमा चाची ने मुंगोङी आलू की रसेदार सब्ज़ी के साथ बींस, शिमला मिर्च और मूली की मिली-जुली सब्ज़ी खिलाई, आनंद आ गया। सब्ज़ियों का यह तालमेल केवल एक पहाङी घर में ही बनाया जा सकता है। कुछ सब्ज़ियां मेरे ख्याल से केवल पहाङ में ही होती हैं जैसे गीठी और तीमूल। बेल में लगने वाले गीठी भूरे रंग की आलूनुमा सब्ज़ी होती है जिसे एक खास तरीके से पकाया जाता है। तीमूल को पहले राख के पानी के साथ उबाल लेते हैं और उसके बाद उसे किसी भी अन्य सब्ज़ी की तरह छौंक कर सूखी या तरीवाली सब्ज़ी बना लेते हैं, बहुत ही स्वादिष्ट बनती है। एक और सब्ज़ी होती है पहाङ में जो खूब बनाई-खाई जाती है वो है गडेरी, मैदानी इलाकों के लोग उसे शायद कचालू के नाम से पहचानेंगे। भांग के बीजों को पीस कर उसके पानी को गडेरी के साथ पकाया जाए तो इसका स्वाद कुछ खास ही होता है।

लोकप्रिय पहाङी खानों में भट्ट (काला सोयाबीन) की चुङकानी, जंबू और धुंगार जैसे मसालों से छौंके आलू के गुटके, कापा (बेसन भून कर बनाया गया पालक का साग), दालें पीस कर बनाई गई बेङुआ रोटी इत्यादि शामिल हैं। पहाङी व्यंजनों में डुबकों का अपना खास मुकाम है। यह भट्ट, चना और गहद की दाल से बनते है, डुबके बनाने के लिए दाल को रात भर भिगा कर सुबह पीस लेना होता है और फिर इसे खास तरह का तङका लगा कर हल्की आंच में काफी देर तक पकाया जाता है। इसके अलावा उङद की दाल को पीस कर चैंस बनाई जाती है।

पहाङी खाने में चटनी की खास जगह है, चाहे वह शादी ब्याह में बनने वाली मीठी चटनी सौंठ हो या भांग के बीजों (इनमें नशा नहीं होता, गांजा भांग की पत्तियों से बनाया जाता है) को भून कर पीस कर बनाई गई चटपटी चटनी। इन दिनों पेङों पर दाङिम (छोटा, खट्टा अनार) लगा हुआ है, धनिया और पुदीना के पत्तों के साथ इसकी बहुत स्वादिष्ट चटनी बनती है। पहाङों में बङा नींबू जिसे मैदानी इलाकों में गलगल भी कहा जाता है बहुतायत से होता है। सर्दियों की कुनकुनी धूप में नींबू सान कर खाना एक अद्भभुत अनुभव होता है। इसके लिए नींबू को छील कर इसकी फांकों के छोटे-छोटे टुकङे कर लेते हैं, साथ में मूली को धो-छील कर लंबे पतले टुकङों में काट कर नींबू के साथ ही मिला लेते हैं। भांग के बीजों को तवे पर भून कर सिलबट्टे पर हरी मिर्च और हरी धनिया पत्ती, नमक के साथ पीस लेते हैं। अब इस पीसे हुए भांग के नमक को नींबू और मूली में मिला लेते हैं। अब एक कटोरा दही को इसमें मिला लेते हैं। स्वाद के मुताबिक थोङी सी चीनी अब इसमें मिला लीजिए और सब चीजों को अच्छी तरह से मिला लीजिए। इसके लाजवाब स्वाद के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं खुद जायका ले कर देखें।

इन दिनों यहां खीरे हो रहे हैं, पहाङ में खीरे को ककङी कहा जाता है और यह आमतौर पर मिलने वाले खीरे से आकार में दो-तीन गुना बङा होता है। जब खीरे नरम होते है तो उन्हें हरे नमक यानी धनिया, हरी मिर्च और नमक के पीसे मिश्रण के साथ खाया जाता है। खीरे जब पक जाते हैं तो उनका स्वाद हल्का सा खट्टा हो जाता है अब यह बङियां बनाने के लिए बिल्कुल तैयार है। इसे कद्दूकस करके रात भर भिगाई गई उङद की दाल की पीठी में हल्की सी हल्दी, हींग इत्यादि मिला कर छोटी-छोटी पकौङियों की शक्ल में सुखा लिया जाता है। बाद में आप इसे मनचाहे तरीके से बना सकते हैं।

मुझे खाने का शौक है और खास तौर पर पहाङी खाना बहुत ही ज्यादा पसंद है उसमें भी सबसे ज्यादा पसंद है रस-भात। रस दरअसल बहुत सारी खङी दालों से बनता है। इसके लिए पहाङी राजमा, सूंठ (पहाङ में होने वाली सोयाबीन की एक किस्म), काला और सफेद भट्ट, उङद, छोटा काला चना, गहत इत्यादि दालों को अच्छी तरह से धो कर रात में ही भिगा दिया जाता है। सुबह उसी पानी में मसाले डाल कर चूल्हे की हल्की आंच में काफी देर तक उसे पकाया जाता है जब सारी दालें पक जाती हैं तो पानी को निथार कर अलग कर लिया जाता है। दालों का यही पानी रस कहलाता है जिसे शुद्ध घी में हल्की सी हींग, जम्बू और धूंगार के पहाङी मसालों का तङका लगा कर गरमा-गरम चावलों के साथ खाया जाता है।

फिलहाल इतना ही, फिर किसी और दिन करेंगे चर्चा कुछ और पहाङी व्यंजनों की। बाहर बारिश तेज़ हो गई है।

मई 10, 2008

समय-दो

(...... और यह रहा दूसरा हिस्सा)
समय चुपचाप चहलकदमी करता रहता है
पल-छिन का हिसाब-किताब करते हुए
कभी न रुक सकने की नियति ढोता, बेबस
समय करता है कल्पना घङियों की कैद से मुक्ति की
बाबरा है समय, जाने क्या-क्या सोचता है

लेकिन सोचो तो अगर समय निकल ही जाए
घङियों की कैद से, तो क्या होगा
तब उन बेचारों पर तो बङी बुरी बीतेगी
जो बेहतर कल के सपनों के साथ
जैसे-तैसे काट रहे हैं आज का कठिन दिन
लेकिन उनकी बन आएगी
जिनके पापों का फल मिलना है कल

ऐसे तो उलट-पुलट जाएगा सब कुछ
सोचता है समय
समय महसूस करता है जिम्मेदारी
इसलिए बना रहता है कैद में
मुस्तैदी से करता है पल-छिन का हिसाब

वो शायद कभी जान भी नहीं पाता होगा
कितना डर जाता है कोई
किसी पुराने महल के उजङे, वीरान खंडहर में
चहलकदमी करते हुए
घङियों में कैद समय की ताकत को जान कर

मई 04, 2008

समय 1

(समय पर लिखने की मेरी कोशिश का पहला हिस्सा)
मां शायद कभी न देती
आर्शीवाद खूब बड़े हो जाने का
अगर जान पाती कि
कितनी अकेली हो जाएगी वो तब।

लङकियों की शादी का सपना
संजोते पिता भी अगर जानते होते
उनके विदाई के बाद के
खून तक में चुभने वाले एकाकीपन को
तो शायद सपनों को किसी दूसरे रंग में रंगते।

बेटे की ऊंची नौकरी भी शायद
उनकी प्रार्थनाओं में नहीं होती
अगर पहले से महसूस कर पाते
घर में उनके न होने का दर्द।

कितना कुछ छूट जाता है, कट जाता है
एक परिवार में,
सिर्फ समय के आगे बढ़ जाने से।

कभी शौक से बनवाया चमचमाता नया घर
बीतते वर्षों के साथ पुराना बूढ़ा दिखाई देने लगता है
निर्वासित छूटे घर के दर्द को पीते हैं
अपने बालों की सफेदी और चेहरे की झुर्रियों के साथ
बूढ़े होते मां-बाप धूप में अकेले बैठ कर
अचानक खूब बड़े हो गए घर में
बच्चों की पुरानी छूटी आवाजों को सुनते हुए।

मार्च 20, 2008

आयो नवल बसंत, सखि ऋतुराज कहायो


"नथनी में उलझे रे बाल "......सधे हुए स्वर के आरोह-अवरोह में अठखेलियां करते यह बोल होली गायकी से मेरा पहला परिचय थे। सिर पर गांधी टोपी और अबीर-गुलाल से रंगे सफेद कुरता-पायजामा पहने फागुनी मस्ती में लहक-लहक कर यह होली गाने वाले अपने मौसाजी के बारे में हम सोच भी नहीं सकते थे कि वो इतना बढ़िया गा लेते होंगे। आठ-दस साल की उम्र में तब न तो बोल समझ में आए थे और न हमेशा गंभीर भाव-भंगिमा वाले अपने मौसा जी का वह गायक वाला रूप। उन्हें इतना खुशमिज़ाज शायद मैंने पहली बार देखा था। उनकी वह छवि और होली के वो बोल मेरी स्मृति में हमेशा के लिए अंकित हो गए।

पहाङ में होली का मतलब रंग से अधिक राग से होता है। ऐसे में आश्चर्य नहीं कि गायन की कई प्रतिभाएं इन्हीं दिनों उभर कर सामने आती हैं। पक्के रागों की धुन से बंधी बंदिशों के रूप में गाई जाने वाली ये होलियां फागुन को संगीत से ऐसा सराबोर करती हैं कि राग-रंग रिस कर गाने वाले और सुनने वालों को असीम तृप्ति के भाव से भर देता है। आमतौर पर पुरूष व महिलाओं की होली बैठकें अलग-अलग होती हैं। पुरूषों की होली बैठकें कभी-कभी रात भर भी चलती रहती हैं और गायकी का जो समां बंधता है वह सुनने लायक होता है। कभी राधा की यह शिकायत कि "मलत-मलत नैना लाल भए, किन्ने डालो नयन में गुलाल ...."अलग- अलग होल्यारों के स्वरों में रागों का जादू बिखेरती है तो कभी किसी गोपी की ये परेशानी कि जल कैसे भरूं जमुना गहरी महफिल को गुंजायमान करती है। शास्त्रीय संगीत के प्रति मेरे शुरुआती ग्यान और रूझान की वजह होली की यही बैठकें रहीं।

दो दिन पहले ही लाल किनारी वाली सफेद धोती और माथे पर अबीर-गुलाल का टीका लगाए होली बैठकों में जाती औरतों के झुंड को देख कर बचपन की होली याद आई और बेतरह याद आई अम्मा यानी मेरी मां। अम्मा का सबसे पसंदीदा त्यौहार था होली, मोहल्ले-पङोस की मानी हुई होल्यार (होली गाने वाली) जो ठहरी। कुमाऊं में होली एक दिन का त्यौहार न हो कर लगभग पूरे महीने चलने वाला राग-रंग का उत्सव होता है। होली से पहले पङने वाली एकादशी को रंग पङता और शुरू होता है महिलाओं की होली बैठकों का दौर।

बचपन में अम्मां के साथ इन बैठकों में जाने का लालच होता था वहां मिलने वाले जंबू से छौंके चटपटे आलू के गुटके, खोयेदार गुझिया और चिप्स-पापङ। बङे होने के साथ धीरे-धीरे गाई जाने वाली होलियों के बोल, धुन भी मन में उतरने लगे। ढोलक और मंजीरे के साथ जब सिद्धि के दाता विघ्न विनाशक होली खेले मथुरापति नंदन के गायन से होली का शुभारंभ होता तो मन में एक अजीब सी पुलक सी जगती थी। यह पुलक या उछाह होली में एक नया ही रंग भर देता था जिसे अनुभव ही किया जा सकता है शब्दों में समझा पाना मेरे लिए तो संभव नहीं है।

जैसे ही हवा में फागुन के आने की गमक सुनाई देने लगती अम्मा अपनी भजनों और होली की डायरी निकाल लेती। हर होली की बैठक से लौटने के बाद डायरी और समृद्ध होती थी नऐ गीतों से। अस्थमा की वजह से साल-दर-साल मुश्किल होती जाती सर्दियों की पीङा झेलने के बाद होली मानों नई जान डाल देती थी अम्मा में। होली उसकी आत्मा तक में जुङी थी शायद इसलिए इस संसार से जाने के लिए उसने समय भी यही चुना। आज से ठीक पांच साल पहले होली के दिन मेरी मां ने इस दुनिया से विदा ली। होली मेरा भी सबसे पसंदीदा त्यौहार है खासतौर से इसकी गायकी वाला हिस्सा, लेकिन अम्मा के जाने के बाद न जाने क्यों होली आते ही मन कच्चा सा हो जाता है और अबीर-गुलाल का टीका लगाऐ होली बैठकों में जाती औरतों को देख कर आंख पनीली हो आती हैं।
(ये फोटो युगमंच वाले प्रदीपदा ने भेजी है ब्लाग पर लगाने के लिए। धन्यवाद प्रदीप दा।)

फ़रवरी 06, 2008

फुरसत ही नहीं मिलती

आज बहुत दिनों के बाद ब्लाग की दुनिया में वापसी हो रही है बहुत अच्छा लग रहा है। इस बीच कबाङखाने में बहुत से महत्वपूर्ण लोगों की आमद से लगता है कबाङ का धंधा काफी मुनाफे का चल रहा है। बहरहाल, जैसा कि आप में से ज्यादातर लोग जानते हैं कि इस बीच मैं एक बालक की भी मां बन गई हूं और यकीन जानिए दो बच्चों को संभालना बिल्कुल भी आसान काम नहीं है। इसलिए ब्लाग लिखना तो छोङिए अखबार की सुर्खियां तक पढ पाना मुहाल हो गया है। थोङी सी मोहलत मिली तो सोचा एक चक्कर यहां का लगा आऊं। अभी तो फिलहाल उम्मीद ही कर रही हूं कि शायद एक आध महीने मे स्थिति नियंत्रण में आ जाएगी और कुछ लिखने का मौका मिलेगा। कबाङखाना में पुत्रजन्म की सूचना पर कई मित्रों की शुभकामनाएं मिलीं, आपके आर्शीवचनों के लिए ह्रदय से आभार। अमर उजाला के कुछ पुराने साथियों को अपने ब्लाग पर देख कर बहुत खुशी हो रही है, मैं जल्दी ही लौट कर बातचीत का सिलसिला आगे बढानें की कोशिश करूंगी। फिलहाल इतना ही।