सितंबर 26, 2010

राग और जोश

अभी-अभी एक बहुत ही दिलचस्प किताब पढ़ कर खत्म की है। शीला धर की लिखी इस किताब का नाम है 'raga'n josh'। पढ़ने में इतना मज़ा आया कि बस मन किया इसे अपनी ऑनलाइन डायरी यानी इस ब्लॉग में दर्ज़ कर लिया जाए। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की जानी-मानी गायिका शीला धर ने अपनी इस प्यारी सी किताब में संगीत की बड़ी-बड़ी शख्सियतों से इतनी आत्मीयता से अपने पाठकों से मिलवाया है कि लगता है आप उनसे सचमुच मिल चुके हैं। शीला जी एक गायिका होने के साथ-साथ एक उच्च पदासीन अधिकारी की पत्नी भी थी और खुद कई सालों तक प्रकाशन विभाग में संपादक की सरकारी नौकरी में रहीं। वह दिल्ली के पुराने संभ्रांत माथुर परिवार में पैदा हुई थीं, एक खानदानी कायस्थ परिवार की परंपराओं की रोचक बानगियां भी इस किताब में है।


'raga'n josh' पढ़ते हुए लगता है कि जैसे घर भर के लोग किसी सर्द रात में गर्म रज़ाइयों में घुस कर किसी हंसोड़ मौसी या बुआ से पुराने किस्से सुन रहे हों। शीला धर का हास्यबोध इतने गज़ब का है कि कई बार आप हंस-हंस कर लोटपोट हो जाते हैं। कम से कम मुझे तो याद नहीं कि पिछली बार किस किताब को पढ़ कर मैं इतना हंसी होऊंगी। इससे यह मत मान लीजिएगा कि यह कोई हल्की-फुल्की मज़ाकिया किताब है, ऐसा बिल्कुल नहीं है। दरअसल यह किताब दो हिस्सों में हैं। पहला "Here's is someone I'd like you to meet" में उन्होंने दिल्ली के नंबर सेवन सिविल लांइस पते वाले घर में बीते अपने बचपन की बातों को याद करने के साथ-साथ संगीत की दुनिया के दिग्गजों के बारे में इतनी दिलचस्प बातें बताईं हैं जो कोई उन्हें बहुत करीब से जानने वाला ही बता सकता है। उन बातों को जानने में ऐसा ही रस मिलता है जो अक्सर घरों में एक-दूसरे के बारे में होने वाली गुप-चुप खुसफुसाहटों में मिलता है।



शीला जी की बातों की इस महफिल में कोई छोटे-मोटे लोग नहीं बल्कि खुद बड़े गुलाम अली खान, बुंदु खान, प्राण नाथ, बेगम अख्तर, सिद्देश्वरी, केसर बाई केरकर , भीमसेन जोशी और उनके उस्ताद फैयाज़ अहमद खान जैसे लोग शामिल हैं। शास्त्रीय संगीत का ककहरा भी जानने वाले लोग इन नामों का वज़न जानते हैं लेकिन शीला जी की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि उनकी बातों में ये सारे लोग अपने ईश्वरीय बढ़प्पन के साथ नहीं बल्कि पूरी मानवीय विशेषताओं के साथ आते हैं जो कभी उन्हें बहुत खास तो कहीं बिल्कुल आम लोगों जैसा बनाती हैं। जहां उनकी कमियां सामने आती हैं तो वो भी उन्हें किसी तरह से कमतर नहीं बल्कि और भी मानवीय बनाती हैं। इस जटिल सी बात को शीला जी इतनी प्यारी तरह से लिखती हैं कि पाठक को दाद देनी ही पड़ती है।


बचपन के अपने पारिवारिक जीवन के बारे में बताते हुए वह न केवल अपनी मां के दुखद दांपत्य जीवन का जिक्र करती हैं बल्कि एक तरीके से भारतीय घरों में औरतों की बंधनपूर्ण जीवन का खाका भी खींचती हैं। उनके जीवन में एक पिता हैं जो अपनी पत्नी को मामूली नैन-नक्श होने के चलते न केवल नापसंद करते हैं बल्कि कुछ हद तक क्रूरता भरा व्यवहार भी करते हैं और यह बात उनके तीनों बच्चे समझते हैं और दुखी होते हैं। पिता की बेरुखी की वजह से खाते-पीते संयुक्त परिवार में मां और बच्चों के साथ होने वाले उपेक्षा भरे व्यवहार को शीला जी समझती है और उसकी सामाजिक मनोवैज्ञानिक स्तर पर व्याख्या भी करती हैं। लेकिन इन्ही पिता का एक और रूप भी है जो संगीत की दुनिया में शीला जी के आगे बढ़ने की वजह भी बनता है। उनके पिता संगीत के न केवल अच्छे जानकार थे बल्कि उन्होंने अपनी युवावस्था में प्रसिद्ध विष्नु दिगंबर पलुस्कर जी से संगीत सीखा भी था। वह उन दिनों होने वाले प्रमुख संगीत उत्सवों के आयोजनों में पूरी सक्रियता से हर तरह का सहयोग देते थे। दिल्ली के कई संगीत और डांस संस्थाओं के लिए वह एक मजबूत स्तंम्भ थे। उन्होंने अपना घर संगीतज्ञों के लिए खुला छोड़ा था जिससे उस दौर के लगभग सभी बड़े कलाकार उनके यहां आ कर कई-कई दिन तक रहते थे। उन्हीं दिग्गजों की संगत में ही शीला जी ने शास्त्रीय संगीत का हाथ पकड़ा और आगे चल कर संगीत की दुनिया में अपना नाम किया।

बहरहाल अपनी इस किताब में वह बताती हैं बुंदु खान साहब के बारे में जो उनकी बचपन की यादों का अभिन्न हिस्सा रहे। उनकी जादुई सारंगी से उनके परिवार का हर उत्सव, हर त्यौहार रौनक रहता था। शीला जी याद करती है उनके भोले-निश्चल से व्यक्तित्व को जो अपनी महानता से पूरी तरह अनभिज्ञ था। एक दिन उनके परिवार ने देखा कि वह फूलों की क्यारी में लेट कर आंखे बंद कर पूरी तन्मयता से सारंगी बजा रहे हैं। पूछने पर वह भोलेपन से जवाब देते हैं कि बसंत का मौसम है इसलिए वह फूलों के लिए बजा रहे हैं।" देश के बंटवारे के बाद बुंदु खान पहले तो पाकिस्तान नहीं जाना चाहते थे लेकिन मजबूरन उन्हें जाना पड़ता है। उनकी भावपूर्ण विदाई का संस्मरण भी यहां है।


फिर बड़े गुलाम अली खान के बारे में लिखते हुए वह बताती हैं कि वह मांसाहारी खाने के कितने बड़े मुरीद थे, एक कार्यक्रम के लिए उनके दिल्ली आने पर उन्हें गलती से एक शाकाहारी घर में ठहरा दिया गया तो उन्होंने किस तरह खुद खाना बनाया और खाने के बाद तय कार्यक्रम से बहुत देर बाद आयोजन स्थल पर पहुंचे। शीला जी ने प्राण नाथ का बहुत आत्मीय विवरण दिया है वह कुछ समय तक उनके गुरु भी रहे थे। कैसे बहुत गरीबी के बाद वह अमेरिका पहुंचे और विदेश में अपना पूरा एक संगीत साम्राज्य उन्होंने तैयार किया यह सब इस किताब में हैं।



बेगम अख्तर और सिद्धेश्वरी दोनों ही उनकी करीबी थीं लेकिन आपस में व्यावसायिक प्रतिद्वंदिता रखती थी। लेकिन इन दोनों का बहुत ही लाड़ भरा परिचय शीला जी इस किताब में कराती हैं। एक बहुत ही मज़ेदार किस्सा सिद्धेश्वरी देवी की विदेश यात्रा के बारे में है जो बनारस की खांटी देसी महिला थीं।



बेगम अख्तर के बारे में कई रसभरे किस्से इसमें हैं। उनके अख्तरी बाई वाले दिनों से जुड़े रंगीन किस्से का भी इसमें जिक्र है। अपने उस्ताज फैयाज खान की गायकी के बारे में बताने के अलावा वह पाठकों को यह भी बताती हैं कि उनको पतंगे कितनी पसंद थीं। कहीं केसर बाई केरकर का जालंधर के नजदीक हरबल्लभ संगीत महोत्सव का गुणगान और फिर कई सालों बाद खुद शीला जी का इस विशिष्ट संगीत महोत्सव में भाग लेने का अनुभव है। कहीं भीमसेन जोशी की मदहोशी की चर्चा है।



संगीत के अलावा क्योंकि वह एक कामकाजी महिला और एक नौकरशाह की पत्नी भी थी तो उस जिंदगी से जुड़ी कुछ बहुत मज़ेदार यादें भी इस हिस्से में हैं, जिसमें एक में प्रकाशन विभाग में उनके गांधीवादी बॉस मोहन राव की शख्सियत के अलावा सिर्फ फाइलों में होने वाले सरकारी कामकाज पर एक बहुत ही सटीक कटाक्ष है। एक जगह गांधी फिल्म बनाने के सिलसिले में भारत आए रिचर्ड एटनबरो की मोहन राव के घर दक्षिण भारतीय खाने की दावत में हुई बुरी हालत का जिक्र है जहां पाठकों के लिए हंसी रोक पाना मुश्किल है।

उनके पति के दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स में नियुक्ति के दौरान विदेशी अर्थशास्त्रियों की पत्नियों का मनोरंजन करने का भार कभी-कभी शीला जी पर भी पड़ जाता था। ऐसे में भारतीय संगीत खासकर कर्नाटक संगीत के बारे में जानने की उत्सुक एक मिसेज हैंडरसन को शीला जी की संगत में क्या कुछ झेलना पड़ता है वह पढ़ कर ही समझ आता है।


शीला जी खुद स्वीकार करती हैं कि वह बहुत बढ़िया मिमिक्री कर लेती थी और अभिनय में उनकी बहुत दिलचस्पी थी। अब चूंकि उन्होंने कैरियर के लिए संगीत का रास्ता चुन लिया था तो अभिनय का अभ्यास वह वास्तविक परिस्थितियों में करती थीं। उनके पति श्रीमती इंदिरा गांधी के निजि सलाहकार थे तो इसलिए उन्हें अक्सर उनके साथ संभ्रांत प्रशासनिक अधिकारियों और सांसदों की पत्नियों के साथ सरकारी समारोहों में जाना होता था जहां का नितांत औपचारिक माहौल शीला जी को कतई रास नहीं आता था। उन निरस समारोहों को वह अपनी अभिनय कला से कम से कम अपने लिए तो बहुत सरस बना लेती थीं। कैसे? यह लंबा किस्सा है जानने के लिए किताब पढ़नी पढ़ेगी।



किताब के दूसरे हिस्से में शास्त्रीय संगीत के विषय में लिखे हुए उनके कुछ लेखों का संकलन है। लेकिन ये केवल तथ्य बताते निरस लेख कतई नहीं हैं बल्कि संगीत की बारिकियों को अपनी खूबसूरत भाषा में पिरो कर लिखी गई दिलचस्प बातें हैं। यहां रागों के रूप, उनकी बनावट, उनके मिजाज़ को ऐसे समझाया गया है जैसे किसी प्रियजन की बात हो रही हो। संगीत का मेरा ज्ञान बहुत ही सतही है उसके बावजूद मुझे ये लेख पढ़ने में बहुत मज़ा आया जो लोग संगीत जानते हैं उनके लिए यह किताब पढ़ना बहुत ही बढ़िया अनुभव होगा, इसका मुझे पूरा विश्वास है।


फिलहाल मैं इतनी प्रभावित कि बहुत कुछ और लिख सकती हूं लेकिन मुझे पता है कि मैं कितना भी लिखूं उसका अंशमात्र रस भी आप तक नहीं पहुंचा सकती। इसलिए संगीत की दुनिया में दिलचस्पी रखने वाले दोस्तों के लिए राय है कि यह किताब जरूर पढ़ें।

4 टिप्‍पणियां:

आशुतोष उपाध्याय ने कहा…

हमेशा की तरह बेहद आत्मीय समीक्षा लिखी है लेकिन यह बताना भूल गयी कि इसे छापा किसने है और मिलेगी कहाँ..!!

पारुल "पुखराज" ने कहा…

ललचा दिया आपने :)

शरद कोकास ने कहा…

अच्छा परिचय है इस किताब का ।

anurag jagdhari ने कहा…

वाह।