नवंबर 25, 2007

किस्सा-ए-इंतखाब भाग दो


अक्सर ऐसा होता था कि आप इंतखाब में तीन की चार या आठ की दस के बंटवारे वाली चाय पी रहे होते हैं कि गली के कोने से किसी की केवल गर्दन नुमाया हो कर पूछती है, जहूरदा रिहर्सल सीआरएसटी में है या नगरपालिका हाल में? जवाब मिलता है नहीं आज तल्लीताल स्कूल में होगी।
जी हां, ये नाटक के रिहर्सल की ही बात हो रही है। दरअसल इंतखाब एक कपङे की दुकान और बैठकी का एक अड्डा होने के अलावा नैनीताल के सबसे पुराने और सबसे सक्रिय थियेटर ग्रुप युगमंच का कार्यालय भी है। रिहर्सल के लिए जगह की मुश्किल या फंड के लिए किसी निश्चित स्रोत के अभाव और ऐसी ही तमाम दिक्कतों के बावजूद युगमंच में कुछ न कुछ होता रहता है और पूरे उत्साह के साथ होता है।

युगमंच का खासा वैभवपूर्ण इतिहास रहा है। यहां के कई सारे कलाकार नेशनल स्कूल आफ ड्रामा (एनएसडी) और इंडियन इंस्टिट्यूट आफ फिल्म टेक्नोलाजी (आईआईएफटी) जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में प्रशिक्षित हो कर अपने पंसदीदा कला क्षेत्रों फिल्म या थियेटर में काम कर रहे हैं। दिल्ली के थियेटर जगत के कई सारे बङे नाम जहूरदा और युगमंच से अच्छी तरह से परिचित हैं। गाहे-बगाहे कला, संस्कृति या साहित्य क्षेत्र की कोई हस्ती चाय सुङकते हुए इंतखाब में बैठी मिल जाए तो आश्चर्य नहीं करना चाहिए, क्योंकि उनके लिए भी इंतखाब उतना ही खास है जितना इंतखाब में उनका होना।

युगमंच की सांस्कृतिक गतिविधियों में केवल नाटक ही शामिल नहीं हैं। छोटी-मोटी काव्य गोष्ठियां तो आए दिन होती रहती हैं और उनमें हिस्सा लेने के लिए आपका बाकायदा कवि होना जरूरी भी नहीं। बस लगना चाहिए कि आप कवि बन चुके हैं और कविता सुनाना आपका मौलिक अधिकार है तो स्वागत है आपका मंच पर। बिल्कुल नौसिखिए भी वीरेन दा जैसे दिग्गज कवि के सामने बेझिझक कविता सुनाने के लिए स्वतंत्र हैं और कविता में थोङा सा भी सार है तो वीरेनदा की तारीफ भी सुनने को मिल सकती है। अवस्थी मास्साब कोई प्यारी सी टिप्पणी कर देंगे जिसे आप हमेशा याद रखेंगे। इससे ज्यादा और चाहिए भी क्या कच्ची रचनाओं वाले कच्ची उम्र के कवियों के आत्मविश्वास के लिए? कविता, कहानी, नाटक पढने-पढाने के इसी दौर में मिले उत्साहवर्धन से ही मेरे सहित हमारे कई साथियों को यह तय करने में मदद मिली कि हमें क्या करना अच्छा लगता और हमें आगे चल कर का करना चाहिए।

कुमाऊं की होली का अपना एक अलग रंग है। यहां होली एक-दो दिन का नहीं बल्कि महीने भर का गायकी का त्यौहार होता है। महिलाओं व पुरूषों की अलग-अलग होने वाली होलियों की गायन शैली में भी अलग होती हैं। पक्के रागों पर आधारित श्रृगांरिक गीतों वाली होली बैठकें रात-रात भर चलती हैं। होली के दिनों में युगमंच भी होलीमय होता है। होली की एक बैठक का आयोजन युगमंच के द्वारा किया जाता है जिसमें शहर के गणमान्य बुजुर्ग होल्यारों के साथ-साथ होली गाने वालों की नई पौध भी पूरे रंग में शामिल होती है। अबीर-गुलाल का टीका लगाने के बाद शुरू होता है आरोह-अवरोह के पेंचो-खम से भरा होली गायकी का दौर। उन होलियों की यादें अब तक कई बार ठंडी आहें भरने को मजबूर कर देती हैं।

हर साल होने वाला शरदोत्सव एक और मौका होता है युगमंच की हलचलें तेज होने का। मल्लीताल फ्लैट्स में हफ्ता दस दिन चलने वाले शरदोत्सव के रंगारंग कार्यक्रम में युगमंच की भी एक प्रविष्टि होती ही थी। कार्यक्रम शुरू होने से पहले तक की हङबङाहट, घबराहट और शो के बाद कई दिनों तक चलने वाला समीक्षाओं का दौर भी खासा दिलचस्प होता था।

केवल सांस्कृतिक ही नहीं बल्कि राजनीतिक गतिविधियां भी पूरे जोर-शोर से चलती रहती थी युगमंच में। उत्तराखंड राज्य की मांग का आंदोलन हो, विधानसभा चुनाव हों या कालेज में छात्र संघ के चुनाव का दौर हो, युगमंच की सक्रिय भागीदारी उसमें किसी न किसी रूप में होती ही थी। रात-रात भर बैठ कर पोस्टर बनाने और रात में ही उन्हें शहर की दीवारों पर चिपकाने का भी अपना सुरूर होता था। लगता था इंकलाब (वो जो भी होता हो) बस होने वाला है और उसे लाएंगे भी बस हमीं। उस समय लिखी अपनी कुछ कविताएं अब पढती हूं तो बहुत हंसी आती है।

अब सोचो तो अजीब सा लगता है कि कितना कुछ बदल गया हमारे आसपास। न वो पहले वाले बेफ्रिक दिन रहे, न ही बार-बार कुछ करने को उकसाने वाले लोग आसपास बचे हैं। कालेज के बाद कई साल तथाकथित कैरियर बनाने की दौङ में नैनीताल की गलियां तो छूटी ही, कितने आत्मीय दोस्तों के पते-ठिकाने भूले गए। बहरहाल इस ब्लागबाजी के बहाने उन भूले-बिसरे दिनों को याद करना भी एक तसस्लीजनक अहसास है।

नवंबर 22, 2007

औरतें

संभव है कि एक अकेली औरत
तनी रहती है पूरी सैनिक सत्ता के आगे
तमाम बंदिशों के बाद भी
जबकि सहम जाती हैं ज्यादातर लङकियां
गलत के आगे, एक हल्की डांट भर से

एक औरत नहीं झुकती कट्टरपंथियों के आगे
अत्याचार और विरोध के बावजूद
लिख देती है, वो सब जो लिखना चाहती है
जबकि बहुत सी लङकियां
पढना तक छोङ देती हैं
बङों की मर्जी के मुताबिक

जंग से बरबाद देशों में भी औरतें
बचा ही लेती हैं जिंदगी के टुकङे
और बनाती हैं घरौंदे जले मकानों में
जबकि चुनती हैं कुछ लङकियां
जल मरने का आसान रास्ता
जिंदगी से लङने की जगह

नवंबर 16, 2007

इंतखाब- एक दुकान

मल्लीताल बङा बाजार से अशोक सिनेमा हाल की ओर नीचे उतरती ढलवां सङक के दांई ओर मुङती संकरी गली के नुक्कङ पर मामाजी की चाय के दुकान के बाद वाली जो दुकान है वही है जहूर दा की दुकान इंतखाब। कौन जहूर दा? इंतखाब? अगर आप नैनीताल में रहते हैं या कभी रह चुके हैं और साहित्य, कला, लिखने- पढने से आपका दूर-दूर से भी संबंध रहा है तो यह मानना थोङा मुश्किल लगता है कि आप उनसे परिचित न हों। अगर आप कभी भी नैनीताल और उसकी सांस्कृतिक हलचलों से वाकिफ नहीं रहे तो माफ कीजिएगा आप इंतखाब नाम की दुकान और जहूर आलम नाम के इसके दुकानदार को नहीं जानते होंगे।

वैसे इंतखाब कपङे की दुकान है लेकिन हमेशा भरी रहने वाली उस दुकान में ग्राहकों के दर्शन मुश्किल से ही होते हैं। ग्राहक बेचारा करे भी तो क्या, एक तो दुकान इतनी छोटी सी, उस पर ना जाने कौन-कौन से लोग हमेशा वहां आ कर अड्डा जमाए रहते हैं। हमेशा ही बहस- बतकहियों की महफिल सी जमी रहती है, हिम्मत करके कोई दुकान में आ भी जाता है तो दुकान में बैठे और लोगों से ज्यादा खुद दुकानदार के चेहरे पर हल्की सी खीझ के भाव आ जाते है कि अरे यार ये क्यों आ गया अभी।

जहूर आलम को बहुत कम लोग ही उनके पूरे नाम से बुलाते होंगे, वो जहूरदा के नाम से ही जाने जाते हैं। पिछले १५ साल से, जब से मैं उन्हें जानती हूं हिना से रंगे लाल बालों और छोटी कद-काठी वाले जहूर दा के चेहरे पर समय के ब्रश का एक हल्का सा स्ट्रोक भी नहीं पङा है। उम्र जैसे साल दर साल बिना छुए आगे बढ जा रही है। हर बार उनसे मिलने पर उसी गर्माहट वाली कुछ-कुछ शर्मीली सी लगने वाली मुस्कराहट के साथ आपका स्वागत होता है। हर बीतते साल के बाद अजनबी से लगने वाले नैनीताल में यह स्वागत भरी मुस्कान तसल्ली देती है आपको घर वापसी का अहसास दिलाती है।

नैनीताल में रहने वाले या पढाई-नौकरी के दौरान कुछ अरसा बिता चुके लोग या कहूं कि थोङा संवेदनशील किस्म के लोग जानते हैं कि यह पहाङी शहर कुछ खास है। इसका अपना एक अलग सा मिज़ाज है जो मौसमों के साथ बदलने के बावजूद एक शाश्वत भाव के साथ आपकी आत्मा से चिपका रहता है। नैनीताल की हवाओं में एक उर्जा हमेशा चलायमान रहती है। एक छोटे शहर के शांत ठहराव के बावजूद नैनीताल में हमेशा कुछ न कुछ बजबजाता रहता है। इंतखाब यानी जहूर दा की दुकान भी नैनीताल के इस मूलभूत विशेषता को अपने में समाए हुए है।

दुकान बहुत छोटी सी है, मुख्य काउंटर के पीछे जहूर दा या असल में इंतखाब के कारोबार की जिम्मेदारी निभाने वाले देवेंद्र पांडे खङे रहते हैं या अपने पीछे वाली रैक की निचली संकरी पट्टी पर तशरीफ टिकाए बैठे होते हैं। जो लोग जहूर दा से परिचित है वह पांडे जी को भी जानते है। दुकान में होने वाली बौद्धिक व अबौद्धिक हर तरह की चर्चाओं के दौरान वह केवल मूकदर्शक बन कर नहीं बल्कि एक सक्रिय वक्ता की तरह हिस्सेदारी करते हैं।

इन दोनों के अलावा दुकान में चार लोग और बैठ सकते हैं, कपङों के डिब्बे इधर-उधर खिसका कर, लेकिन अक्सर सात-आठ लोग जैसे-तैसे अटक कर बैठे मिल ही जाते हैं वहां। दो-चार लोग तो दुकान की दो सीढियों में ही लटक कर काम चला लेते हैं। बीच-बीच में दुकान के सामने से गुजरते लोगों से ओहो पांडे जी, अहा गिरदा, अरे प्रमोद दा की पुकार के साथ कुशल-क्षेम का आदान-प्रदान जारी रहता है। दुकान के बाहर की संकरी सी गली जैसे एक फिल्मी परदे का काम करती है, जिसमें निर्मल वर्मा की कहानियों जैसे पात्र एक कोने से निकल कर दूसरे कोने में छिपते चले जाते हैं। दुकान के ठीक सामने यानी गिन कर तीन कदम की दूरी पर दिवाल से लगभग चिपकी हुई चूढी की दुकान हैं। इंतखाब में बैठ कर केवल इस दुकान में होने वाली हलचल पर नजर टिकाए भी घंटों बिताए जा सकते हैं।

बहरहाल यह तो था दुकान का भौतिक स्वरूप, खास बात है इसकी आत्मा। मेरे जैसे छोटे गांव-कस्बों से नैनीताल पढने आए कई सारे लोगों के लिए यह दुकान जैसे एक दूसरा विश्वविद्यालय थी। मैंने यहीं आ कर जाना कि थियेटर जैसी भी कोई चीज होती है, एक एनएसडी भी है कहीं, कोई कवि हैं वीरेन डंगवाल, मंगलेश डबराल, नाज़िम हिकमत, कोई ग्यानरंजन हैं उनकी एक पत्रिका है पहल। यहीं जाना कि एक चीज़ होती है राजनीति और एक राजनीतिक विचारधारा। एक दक्षिण पंथ होता है और एक वामपंथ। एक जनमत भी है। यहीं आ कर पता चला कि फिल्म संगीत से इतर भी संगीत होता है। जैसे बंद कमरे में अनगिनत दरवाजे अचानक खुल गए हों।

ऐसा नहीं था कि सब बातें समझ में आ ही जाती थीं लेकिन जितना भी समझा उसने ही आगे के जीवन की दिशा तय करने में मदद करी ये क्या कम योगदान है एक दुकान का? मैं ही नहीं कुछ और लोग भी हैं जिनकी जिंदगी के रास्ते इंतखाब की रोशनी में तय हुए। जब मैं यह बात कर रही हूं तो इसमें अतिशयोक्ति कतई नहीं हैं। दरअसल इंतखाब बहुत ही सादामिज़ाज सी दुकान है कि वास्तव में इसे खुद भी यह अहसास नहीं होता कि अनजाने में ही यह कितने लोगों को कितनी बातें सिखा देती है। हिंदुस्तान की सांझा संस्कृति देखनी हो तो यहां आइए। जहूरदा की अगुआई में कुमाउंनी होली की रंगत देखनी हो या रामलीला में श्रवण कुमार नाटक का मंचन आप जान जाएंगे कि सांम्प्रदायिक सदभावना कहने-सुनने की नहीं गुनने की चीज़ है।

इंतखाब में आप बातें ही नहीं जानते बल्कि इतने सारे लोगों से, इतनी विधाओं के जानकार लोगों से मिलते हैं कि आप कितने ही आत्मकेंद्रित किस्म के हों आपके दोस्तों का दायरा बढना निश्चित है। कबाङखाने के ज्यादातर साथियों को मैं जहूर दा, युगमंच और इंतखाब के जरिए ही जानती हूं। कुछ साल पहले अवस्थी मास्साब से आप यहीं मिल सकते थे, हमेशा मुस्कराते लगते चेहरे पर मुंदी हुई आंखों के साथ शेक्सपियर के किसी नाटक के किसी हिस्से की दिलचस्प व्याख्या करते हुए। कंधे पर झोला टांगे गिर्दा भी यही मिल जाते हैं कभी-कभार। इंतखाब ही वह जगह हो सकती है जहां आपको असलम के लिखे नोहे का मतला ठीक करते जगमोहन जोशी यानी मंटूदा मिल सकते हैं, या जाङों के दिनों में अंडे का ठेला लगाने के कारण अनिल अंडा के नाम से मशहूर अनिल, जहूर दा से बहस करता दिख सकता है कि नाटक के काम में राजनीतिक विचारधारा का दखल नहीं होना चाहिए। प्रदीप पांडे किसी नए नाटक के संवादों से माथापच्ची करते यहीं मिल जाएंगे। संजीदा चेहरे के साथ अपनी हंसोङ टिप्पणियों से हंसा-हंसा कर लोट-पोट कर देने वाले हेंमत बिष्ट से या बच्चों वाली सरस मुस्कान वाले मामा जी यानी जितेंद्र् बिष्ट से भी यहीं मुलाकात हो सकती है। किस-किस का नाम लूं, इतने सारे आत्मीय और दिलचस्प लोगों से गुलजार रहती है इंतखाब की महफिल कि यहां से गए लोग सालों-साल यहां की यादों को सहेजे रखते हैं।

बीते सालों में इंतखाब भी काफी उथल-पुथल से हो कर गुज़रा है। कई सारे पुराने साथियों ने यह अड्डा छोङ कर नए मुकाम तलाश लिए। सालों से जुङे दिलों में जब दरारें आईं तो जाहिरी तौर पर तल्खियां भी सामने आईं। कई तरह के गिले-शिकवे हैं दिलों में, रिश्ते जितने गहरे होते हैं चोट भी उतनी ही गहरी होती है इसलिए आपसी कङवाहटें भी स्वाभाविक हैं। लेकिन समय की स्लेट पर सब कुछ अच्छा ही लिखा जाए यह संभव भी तो नहीं इसलिए कुछ अलगाव, कुछ दूरियां, कुछ कङवाहटों के लिए भी अपनी यादों में ही जगह बनानी होगी।