अक्तूबर 20, 2010

छप चुका है सब!!

(उसी फटती डायरी से अलग हुए एक और पन्ने पर लिखी कुछ पंक्तियां)

लिखा जा चुका है सब पर,
धरती, आकाश और इन दोनों के बीच
मौजूद हर चीज़ पर
जिंदा आदमी से जुड़ी-अनजुड़ी
हर चीज़ पर

सुख इतना सारा मन के अंदर का
सब फैल चुका कागज़ पर
सुख बसंत सा और न जाने कितनी
सुखद उपमाओं वाला,
और दुख तो जैसे
अनवरत बहती नदी कागज़ पर

मरते, बीमार, असहाय, सहमें
लोगों का दुःख भी उनके जाने बिना ही
दुबका है किताबों में
बताता है बड़े लोगों राजपुरुषों को
देखो मैं ऐसा हूं उन अभागे लोगों के बीच

विरक्ति भी, भाव भी, प्रेम भी
अपने हर संभव कोण में
ढल चुके हैं अक्षरों में
कभी-कभी तो मन भी हार जाता है
इतने व्यवस्थित किताबी सुख-दुख से
अनगढ़ा मिट्टी के लौंदे जैसा दुख
और कुछ वैसा ही सुख भी

अब जबकि कम होती जा रही हैं
अनुभूतियां दिन ब दिन,
किताबों में छपने के लिए
नए-नए अक्षर गढ़े जा रहे हैं
समय के छापेखाने में

थोड़े से दिन और हो जाएंगे जब
तब शायद ये सब रह जाएंगे सिर्फ किताबों में!

अक्तूबर 06, 2010

सपने

(17 साल पहले लिखी कवितानुमा कोई चीज़! फटती-उधड़ती बचपन की डायरी के अलग हो गए पन्ने पर लिखी इन पंक्तियों को अस्तित्वहीन होने से बचाने के लिए यहां डालने का लोभ रोका नहीं गया)

आंखों के पथरा जाने से बेहतर है
उनका आंसुओं से भरे रहना,
जिन्हें बहाया जा सके रोकर
ताकि उसके बाद जगह हो
आंखों में, उम्मीदों के लिए
सपने बसने चाहिए आंखों में, हाथों में
सपनों को बुन कर मत खो जाने दो
दिमाग की पेंचिदा गलियों में
भटकने के लिए
सपने बनते हैं हकीकत, अगर
कुचले न जाएं सपनों के ही बोझ से
सपनों को सींचना पड़ता है उम्मीद से
वरना हवा में तैरते सपने अक्सर
बदल देते हैं अपना खुशनुमा रंग
जिंदगी से भागते बदनुमा रंगों से
मत डूबो सपनों में
पलने दो, बढ़ने दो
फलने दो सपनों को
आंखों में, हाथों में।