मई 10, 2008

समय-दो

(...... और यह रहा दूसरा हिस्सा)
समय चुपचाप चहलकदमी करता रहता है
पल-छिन का हिसाब-किताब करते हुए
कभी न रुक सकने की नियति ढोता, बेबस
समय करता है कल्पना घङियों की कैद से मुक्ति की
बाबरा है समय, जाने क्या-क्या सोचता है

लेकिन सोचो तो अगर समय निकल ही जाए
घङियों की कैद से, तो क्या होगा
तब उन बेचारों पर तो बङी बुरी बीतेगी
जो बेहतर कल के सपनों के साथ
जैसे-तैसे काट रहे हैं आज का कठिन दिन
लेकिन उनकी बन आएगी
जिनके पापों का फल मिलना है कल

ऐसे तो उलट-पुलट जाएगा सब कुछ
सोचता है समय
समय महसूस करता है जिम्मेदारी
इसलिए बना रहता है कैद में
मुस्तैदी से करता है पल-छिन का हिसाब

वो शायद कभी जान भी नहीं पाता होगा
कितना डर जाता है कोई
किसी पुराने महल के उजङे, वीरान खंडहर में
चहलकदमी करते हुए
घङियों में कैद समय की ताकत को जान कर

मई 04, 2008

समय 1

(समय पर लिखने की मेरी कोशिश का पहला हिस्सा)
मां शायद कभी न देती
आर्शीवाद खूब बड़े हो जाने का
अगर जान पाती कि
कितनी अकेली हो जाएगी वो तब।

लङकियों की शादी का सपना
संजोते पिता भी अगर जानते होते
उनके विदाई के बाद के
खून तक में चुभने वाले एकाकीपन को
तो शायद सपनों को किसी दूसरे रंग में रंगते।

बेटे की ऊंची नौकरी भी शायद
उनकी प्रार्थनाओं में नहीं होती
अगर पहले से महसूस कर पाते
घर में उनके न होने का दर्द।

कितना कुछ छूट जाता है, कट जाता है
एक परिवार में,
सिर्फ समय के आगे बढ़ जाने से।

कभी शौक से बनवाया चमचमाता नया घर
बीतते वर्षों के साथ पुराना बूढ़ा दिखाई देने लगता है
निर्वासित छूटे घर के दर्द को पीते हैं
अपने बालों की सफेदी और चेहरे की झुर्रियों के साथ
बूढ़े होते मां-बाप धूप में अकेले बैठ कर
अचानक खूब बड़े हो गए घर में
बच्चों की पुरानी छूटी आवाजों को सुनते हुए।