अक्तूबर 28, 2007

निठल्ला चिंतन

मैं खुद को ऐसे लोगों में शामिल करती हूं जो अक्सर आसान रास्ते ढूंढते हैं। हालांकि छोटे शहर में पली-बडी पांरपरिक लङकी से अपेक्षित शर्तों को पूरा करने की बजाय जिद करके दिल्ली जाने, नौकरी करने और अपनी मर्जी से शादी करने के मेरे कारनामों को मुश्किल कदम करार दिया गया। लेकिन मेरे लिए मां-बाप के ढूंढे किसी उच्च-कुलीन, सुशिक्षित, संपन्न अजनबी से शादी करने की बजाय नौकरी ढूंढने का संघर्षपूर्ण विकल्प कहीं ज्यादा आसान था।

बहरहाल, आसानी ढूंढने की अपनी प्रवृति की वजह से मैं हमेशा मुश्किल सवालों से कतराती हूं, सामने भिङने से बचती हूं। राजनीतिक मसलों पर कोई ठोस वैचारिक दृष्टिकोण भी शायद इसीलिए नहीं बन पाया जिस पर आस्था रख कर तर्क-वितर्क कर सकूं। मैं एक मध्यमवर्गीय आम नागरिक हूं जिसे भले ही पेंचिदा बातों की बहुत ज्यादा समझ नहीं है। लेकिन मैं अपने को एक ईमानदार इंसान मानती हूं और कोशिश करती हूं कि अपनी बातों और कामों के बीच फर्क न रखूं। इसके अलावा सही और गलत के बीच के मूलभूत अंतर की भी थोङी-बहुत पहचान शायद मुझे है।

जीवन शब्द मुझे बहुत सुंदर लगता है। तमाम तरह की विषमताओं, दुखों, चिंताओं, दिक्कतों के बावजूद मनुष्य के अंदर जीने की जो ललक होती है वो मुझे हमेशा सम्मोहित करती रही है। विश्च इतिहास अमानवीय यातनाओं का साक्षी रहा है, हर बार मानव की जीजिविषा इस दुनिया को नारकीय गहराइयों से निकाल कर जीवन की सतह तक लाती रही है। युद्ध से बरबाद देशों के जले हुए घरों में जब फिर से जिंदगी सिर उठाने लगती है तो हारा हुआ मन आशा से फिर लहराने लगता है। वीरेन दा की पंक्तियां "पोथी-पत्रा, ग्यान-कपट से बहुत बङा है मानव" हमेशा ही मेरे विश्वास का आधार रही हैं। साहित्य और फिल्में भी मुझे ऐसी ही पसंद आती हैं जिनका अंत जीत के साथ हो, सुखद हो।

लेकिन पिछले कुछ अरसे से मन में एक उचाट भाव जैसे जम के बैठने लगा है। क्या जीवन की तल्खियां सचमुच में इतनी रूमानी होती हैं? मैं और मेरे जैसे लोग जो यातनाओं को किसी कवि, लेखक की सधी लेखनी से उकेरे मर्मस्पर्शी शब्दों के जरिए पहचानते है या फिल्म कला के पुरोधाओं द्वारा पर्दे पर दिखाई जाने वाली कहानियों के जरिए देखते हैं, क्या सचमुच समझ पाते हैं अमानवीयता को? निश्चित तौर पर हमें सहानुभूति होती है, मन उद्वेलित होता है लेकिन क्या जल्दी ही उसे भूल कर किसी ऐसी चीज की तलाश नहीं करने लगते तो हमें इस अहसास को भुला कर थोङा खुशमिज़ाज कर दे?

इसी हफ्ते एक टीवी चैनल पर गुजरात दंगों की सच्चाई पर एक कार्यक्रम देखा। ऐसा नहीं था कि गुजरात दंगों की वास्तविकता किसी से छुपी हुई है, दंगों के दौरान हैवानियत का नंगा नाच किस हद तक पहुंचता है वह भी सब जानते हैं, फिर भी हर बार जब भी कुछ ऐसा होता है हमारी संवेदनाओं को ऊपरी सतह पर कुछ उथल-पुथल तो होती ही है। कोफ्त होती है कि हमारे चुने हुए प्रतिनिधि ही किस तरह षणयंत्र रच कर हमें मरवाते हैं। गुस्सा आता है कि विपक्ष के नेता बजाय कुछ ठोस करने के लिए अपनी रोटियां सेंकने के जुगाङ ढूंढते हैं। आत्मग्लानी होती है कि हम कुछ नहीं कर पाए। ये सारे अहसास हमें होते हैं लेकिन फिर भी क्या हम सचमुच पीङितों के दर्द को महसूस कर पाते हैं?

शायद......शायद नहीं......पता नहीं......मुझे यह सवाल इसलिए ज्यादा शिद्दत के साथ परेशान कर रहा है क्योंकि आशीष ने मुझसे बातों-बातों में यूं ही यह पूछ लिया था। दरअसल जिस आशीष से मैंने शादी की है वो एक सिख परिवार से है। दंगों को लेकर वो बहुत ज्यादा संवेदनशील है क्योंकि ८४ में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए सिख विरोधी दंगों में उसके परिवार ने उसकी आंच काफी करीब से महसूस की। दंगाइयों की भीङ उनके घर पर धावा मारने के लिए आगे बढ रही थी, और तीन भाई अपनी पत्नियों और छोटे-छोटे बच्चों के साथ रुकती सांसों के साथ इंतजार कर रहे थे मौत का। आत्मरक्षा के लिए जो कुछ भी संभव था हाथ में लिए यह परिवार सोच रहा था कि मरना तो है ही तो लङ कर ही मरें। भीङ घर तक पहुंचने ही वाली थी कि किस्मत से सेना ने वहां पहुंच कर हालात काबू में कर लिए और एक घर जलने से बच गया। लेकिन सब इतने भाग्यशाली नहीं थे। कारोबारी तौर पर कई लोग पूरी तरह से बरबाद हो गए।

उस समय आशीष १४ साल का था और वो दिन आजतक उसकी स्मृति में पूरे आतंक के साथ अंकित है। आशीष के दो छोटे जुङवा भाई उस वक्त आठ साल के थे, उन्हीं दिनों जब वो अपने मौहल्ले के ही मैदान में खेल रहे थे तो उन्हीं की उम्र के उनके साथी तानेबाजी करते थे कि अबे ज्यादा मत बनना वरना तुम्हें भी काट डालेंगे जैसे सरदारों को काट रहे हैं सब जगह......ये कैसी मानसिकता है जो एक सामान्य मध्यमवर्गीय परिवार के मासूम से बच्चे के मुंह से एक आतंकवादी की बोली बुलवाती है?

हालांकि मैंने दंगा नजदीक से नहीं देखा लेकिन भीङ मानसिकता किस कदर अतार्किक और खतरनाक हो सकती है इसका एक छोटा का अनुभव एक बार मैं भी कर चुकी हूं। २००३ मार्च में अपनी मां के अंतिम संस्कार के बाद मैं आशीष के साथ ट्रेन से दिल्ली लौट रही थी। मेरी बेटी तब गर्भ में थी, तन-मन दोनों से टूटी-हारी मेरे लिए ट्रेन का उस दिन का सफर एक भीषण यातना जैसा था। हल्द्वानी से चली गाङी जब मुरादाबाद स्टेशन पर पहुंची तो हमारे आरक्षित कूपे में जैसे एक भूचाल सा आ गया।

जय श्री राम का घोष करता देहाती से दिखने वाले लोगों का एक जत्था कूपे में घुस आया। वो लोग दिल्ली में विहिप की किसी राम रैली में हिस्सा लेने जा रहे थे। इसके बाद शुरू हुआ उनका हुङदंग, सोती हुई महिलाओं को जबरन उठा कर सीटों पर कब्ज़ा करने लगे। हम सभी लोगों ने प्रतिरोध करने की कोशिश की तो वे लोग धमका कर बोलने लगे राम के नाम पर आप इतना भी कष्ट नहीं उठा सकते, तभी तो राम के देश का यह हाल हो गया है। अगले कूपे में एक आदमी जब उनसे लङने पर आमादा हो गया तो उनमें से एक ने उसे चुपचाप अपने कपङों में छुपाया हुआ हथियार दिखा कर चुप कर दिया।

उसके बाद रास्ते भर वो लोग राम के प्रति अपनी आस्था के आधार पर अपनी करनी को न्यायसंगत करार देते रहे। एक बात जो मैंने गौर की वो ये कि वे लोग बिल्कुल आम लोग थे जो दूसरे दिनों को रोजी-रोटी के जुगाङ और घर-परिवार की चिंता में बिताते होंगे। फिर ऐसा क्या होता है कि एक गरीब आम आदमी आतंकवादी की सी हरकतें करने में कोई हिचकिचाहट महसूस नहीं कर पाता? फिर से वीरेनदा के ही शब्दों में ही " हमने यह कैसा समाज रच डाला है" ?

अब जब दंगों की बात होती है तो मैं उसे एक १४ साल के ऐसे लङके की नज़र से देखती हूं जो अपने मां-पिता और भाई-बहनों के साथ दंगाइयों की भीङ का इंतजार कर रहा है। तब कोई चीज़ जिसे नाम देना मेरे लिए मुश्किल है, मेरे अंदर मरती है। मानवता पर मेरा विश्वास बहुत स्थिर नहीं रह पाता और मेरे लिए इससे ज्यादा खतरनाक और डराने वाली कोई नहीं है।

अक्तूबर 15, 2007

सर्दियों की आहट


पहाङों में सर्दियों ने दस्तक दे दी है। दो दिन की छिटपुट बारिश ने मौसम का मिज़ाज बदल कर रख दिया गया है। हवा में ठंडी खुनक आने लगी है। यहां की सर्दियां मुझे बहुत अच्छी लगती हैं खास तौर पर सर्दियों की शामें जो अचानक बहुत उजली-उजली सी हो गई हैं। हवा में भारीपन के बावजूद सब कुछ बहुत खुला-खुला सा लगता है शायद पतझङ के कारण पत्तों से खाली हो रहे पेङों का इकहरापन शामों की उजास की वजह हो।

पहाङों में बदलते मौसम का अहसास शहरों की तरह केवल शरीर के स्तर पर नहीं होता। यह आंखों के सामने दिखाई भी देता है। दूर तक फैले विस्तार के कैनवास में प्रकृति रंगों के अपने खज़ाने को खुले हाथों से लुटाती है और हर मौसम को कलाकार की सी बारीकी के साथ बिल्कुल अलग रंग से सजाती है। रंगों के लिहाज से गर्मियां सबसे समृद्ध होती हैं, जंगल में आग की तरह दहकता बुरांश का सुर्ख लाल रंग, हिसालू-काफल-किलमोडा के चटख रंगों से सजी जंगली बेरियों की झाङियां और फूलों की असंख्य किस्मों से पहाङियां जैसे सजी रहती है। मानसून में प्रकृति का रंग कुछ और ही होता है। हरे रंग के जितने भी शेड्स आप कल्पना कर सकते हैं वो आपके सामने फैले होते है। खिङकी के अंदर घुसते बादलों के बीच हरे रंग की धरती को निहारना अपने आप में एक अनुभव है।

सर्दियां आते-आते प्रकृति के रंगों का चटकीलापन जैसे हल्का पङ जाता है। जैसे अल्हङता ने अपनी उन्मुक्तता से सहम कर खुद ही अपने कदम धीमे कर दिए हों। पत्ते हरे से बदल कर सुनहरे पीले हो कर धीरे-धीरे पेङों का दामन छोङ कर जमीन के आगोश में छुपने लगते हैं। सुनहरी होती घास पर गिरे भूरे-पीले पत्ते कभी-कभी एक अनजानी सी उदासी से भर देते हैं मन को। एक ऐसी उदासी जिसकी कोई वजह नहीं होती, जो लगता है कि जरूरी है दिनोंदिन व्यवहारिक होते जा रहे मन की संवेदनाओं को सहेजे रखने के लिए। ऐसी उदासी जिसमें आप कुछ रचना चाहते हैं। कम से कम मुझे ऐसा ही लगता है पहाङों में सर्दियों की उजासभरी शामों को गिरे हुए पत्तों के ऊपर चलते हुए।

आने वाले दिनों में लगातार भारी होती हवा में आवाजें तो क्या सन्नाटा भी साफ-साफ सुनाई देने लगेगा। सुबह ओस की बूंदें सर्द रातों के बोझ से जमी हुई घास को सफेद चादर से ढकने लगेंगी। चिङियों की चहचहाट सुबह के सन्नाटों को आवाजों से भर देंगी। गर्म चाय की तरावट जैसे अंतस तक पहुंचने लगेगी। तो ऐसी ही सर्दियों की आहट सुनाई देने लगी है यहां पहाङों में।

पुरानी डायरी

यूं ही हाथ पड जाती है पुरानी डायरी
किताबों के बीच दबी निरीह सी
कोने पर बैठी डांट खाई पालतू बिल्ली सी
सहसा उमडा लाड पुचकार कर पलटे पन्ने
यूं ही कुछ अनगढ बेतरतीबी सी सतरें
याद दिलाती धुंधली बातों की
कभी के बरसे आंसू बंद किन्हीं पन्नों पर
अब भी नरमा देते पलकों की कोरों को
कहीं पन्नों पर जंगली फूल दबे हैं
कच्ची हल्दी के फूल सफेद पडे हैं
छोटी प्यारी कोई कविता यहीं छिपी है किन्हीं कवि की
राहत देती सी यहां सभी हैं साथ तुम्हारे
फीस की एक रसीद भी यहीं मिलती है
अल्हड मस्ताने दिन रातों की यादों की कुंजी
सारी चीजें निकल बैठी हैं साथ में मेरे
बिछडे मित्रों सी गले लगा कर
पन्ने-पन्ने पलटे और फिर बंद हो गई
कच्ची उम्र के अनुभवों की संचित निधि
यूं ही साथ किताबों के बीच दबी डायरी में

अक्तूबर 13, 2007

थ्री कप्स आफ टी यानी तीन कप चाय

इस दुनिया में इतने दुख हैं परेशानियां हैं जिन्हें देख कर लगता है कि इसे सिरे से बदलने की जरूरत है। लेकिन हम जानते हैं ये नामुमकिन है (क्रांतिकारी साथियों से गुज़ारिश है कि इस पक्तिं में निराशावाद न ढूंढें, यह मात्र एक व्यावहारिक सच है)। तो फिर क्या किया जाए? अफसोस करें अपनी बेचारगी पर या तोहमत लगाएं दूसरों पर कि वो कुछ नहीं कर रहे हैं?

मेरा मानना है कि तमाम दिक्कतों के बावजूद जिन्दगी इतनी खूबसूरत है कि हर वक्त इसमें खामियां निकाल कर दुखी होना अपने होने के साथ नाइंसाफी है। पूरी दुनिया बदलने की जगह जितना हमारे बस में है उसे ही सुधारा जाए तो शायद हम एक खुश जिंदगी जीने के बाद एक संतुष्ट इंसान की तरह मर पाएं।


हाल में ग्रेग मार्टसन और डेविड ओलिवर रेलिन की किताब थ्री कप्स ऑफ टी पढ़ कर मुझे दुनिया को रहने लायक बनाने की अपनी उपरोक्त थ्योरी पर विश्वास और भी मजबूत हुआ। यह किताब कहानी नहीं है बल्कि एक अमेरिकी ग्रेग मार्टसन द्वारा पाकिस्तान और अफगानिस्तान के कठिन भौगोलिक स्थितियों वाले सीमांत इलाकों में प्राथमिक शिक्षा के लिए गए असाधारण प्रयासों का दिलचस्प और प्रेरणास्पद ब्यौरा है।

मिशनरी माता-पिता की संतान ग्रेग मार्टसन का बचपन तंजानिया में बीता। अमेरिका लौटने के बाद उन्होंने काम के लिए चिकित्सा क्षेत्र चुना और कुछ साल फौज में भी बिताए। लेकिन उनका मन रमता था पहाङों की ऊँचाईयाँ फतह करने में।

अपनी विक्षिप्त बहन क्रिस्टा के मौत के बाद ग्रेग ने मन बनाया कि हिमालय की के-२ चोटी को फतह कर शायद वह अपनी प्रिय बहन को श्रद्धांजलि दे पाएंगे। इसी उद्देश्य से १९९३ में उन्होंने के-२ आरोहण शुरू किया लेकिन कुछ कारणों से उनका यह अभियान नाकामयाब रहा। निराश ग्रेग लौटते हुए रास्ता भटक कर कोरफी नाम के एक गांव में पहुंचते हैं जो विकास के लिहाज से बहुत पिछङा हुआ है। और यहीं से शुरू होता है उनका नया और सार्थक अभियान। पाकिस्तान के सीमावर्ती बाल्टी क्षेत्र के इस गाँव के लोगों का निश्चल अपनापन उन्हें वहाँ के लिए कुछ करने को प्रेरित करता है और वह वहाँ एक स्कूल बनाने का वादा करते हैं। कोरफी गांव की दूरुह भौगोलिक परिस्थितियों और ग्रेग की अपनी आर्थिक हालत को देखते हुए वहाँ स्कूल बना पाना असंभव न भी सही मुश्किल जरूर था।

ग्रेग मार्टसन कैसे उन मुश्किलों से पार पा कर न केवल कोरफी में बल्कि उस कठिन इलाके के और भी गांवों में भी स्कूल खोल पाने में सफल रहे, थ्री कप्स आफ टी उसी की कहानी है। शिक्षा के क्षेत्र में उनका यह अभियान पाकिस्तान व अफगानिस्तान के उन इलाकों के सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य पर कैसा सकारात्मक असर डाल रहा है, यह उसकी कहानी

मार्टसन का काम अब भी जारी है। सच्ची परिस्थितियों के बीच सकारात्मक सोच के साथ किए जा रहे कामों, ग्रेग मार्टसन की व्यक्तिगत जिंदगी और अपने उद्देश्यों को पूरा करने के लिए उनके संघर्षों का पूरा वर्णन इतना रोचक है कि मेरे लिए इसे एक बार शुरू करने के बाद पूरा किए बिना रख पाना मुश्किल था।किताब पढने के बाद लगता है कि अगर चाह हो तो राह निकल ही आती है, बात बस इतनी सी है कि आपकी चाह में शिद्दत कितनी है।

अक्तूबर 10, 2007

दिल्ली के शुरुआती बेरोजगारी वाले परेशान दिनों में लिखी गई दो कविताएं

विदाई

कभी नहीं सोचा था कि
नवाकुंरों से नवीन
भोर की स्वपनिल नींद से प्यारे
गंवई, अनगढ लेकिन सच्चे से शब्द
इतनी जल्दी विदा लेने लगेंगे मुझसे
कभी अनींदी रातों में यूँ ही कौंध कर
छुपने लगेंगे बस यूँ ही
और जब याद करूँगी उन्हें
तो याद आएंगे
आयोजित बैठकों में बोले जाने वाले प्रायोजित शब्द
कुछ लोग नहीं समझेंगे कि
जब बातें कही न जा रही हों
सिरफ बनाई जा रही हों
शब्दमित्रों का इस तरह रूठना
कितना खराब है।


उदासी
रात जाने के बाद
जब तक सुबह न हो
याद के पंछी डोलते हैं
पलकों पर होती है भीगी ओस
हंगामेदार उजाङ शहर में
भटकते दिनों की थकन
निंदियाती रातों के चुक जाने के बाद
छोङ देती है मुक्त
कंकरीटी शहर के बीच
दिखाई देते हैं पहाङ, बरफ
रीता मन भरा-भरा सा
कितने हँसते दिन छिपते आँखों में
होता है कोई घर, कोई बंधु
मन के अंसुआते कोनों में
आ जाता है यूं ही ऐसे ही
रात जाने के बाद सुबह होने तक के बीच

अक्तूबर 06, 2007

कबार-खाना के सभी साथियों को नमस्कार है। उम्मीद है आप सभी ठीक-ठाक होंगे। आज पहली बार इस फॉण्ट पर लिखने की कोशिश की है। अगली बार ज्यादा बात होगी।