जून 03, 2011

दूर छिपे उन दिनों का सपना

(आज लगभग दस सालों बाद लिखी गई कवितानुमा कोई चीज़)
अखबार के पहले पन्ने पर रोते-बिलखते लोग
बम फटने से मरे लोगों के परिजन
बसे रहते हैं दिन भर मन में कहीं
अंधेरी डरी रात में खुली आतंकित आंखों में
धीरे से उतरता है एक सपना


दूर अनंत में छिपे दिनों का
जिनमें हमेशा घर लौटेंगे हंसते हुए पिता,
बच्चों के लिए दूर तक पसरा होगा मां का आंचल
तब खून सिर्फ रगो में दौड़ने वाली चीज़ ही होगा
सड़क जैसी सार्वजनिक जगहों पर फैलने वाला रंग नहीं
गीत होंगे बहुत सारे और खूब रंग भी
किलकारियां, रोशनी और खुशियों जैसी होंगी बहुत सी चीज़ें
हां...हां...हरे पेड़, चमकदार पानी और खूशबूदार हवा जैसी
ज़रूरी चीज़ें तो होंगी ही!!!


नहीं होंगी तो बम, हथियार जैसी फालतू चीज़ें
तोप, फौजें और लड़ाके ज़रूरी नहीं होंगे उन दिनों में
हां वर्दी वाले चाहें तो खड़े हो सकते हैं
उस मैदान के चारों ओर...जहां बच्चे खेलते हैं मनचाहे खेल
और कर सकते हैं मैदान से बाहर आ गिरी गेंद को
फिर से बच्चों को थमाने जैसा ज़रूरी काम


आतंक के बीच नींद से रीती आंखों में
अनंत में छिपे उन दिनों का सपना चुभता क्यों है???

मई 02, 2011

नीमा


इन दिनों जब भी शाम को ठंडी हवा को बांज की पत्तियों के साथ सरगोशियां करते सुनती हूं नीमा की याद अनायास ही आ जाती है। मैं जब पहाड़ों के इस खूबसूरत मौसम का मज़ा ले रही हूं वो बेचारी पहाड़ की लड़की देस की गरम हवा में झुलस रही है। नीमा का मायका मेरे पड़ोस में है, उसकी शादी दो साल पहले हुई थी तब से वह अपने ससुराल मथुरा में रहती है। मुझे इस गांव में रहते हुए अब सात साल से ज़्यादा अरसा हो गया है, लेकिन मेरे पड़ोस में नीमा नाम की कोई लड़की रहती है इसका पता मुझे चारेक साल पहले ही लगा। दरअसल गांव की एक शादी में दुल्हन को मेहंदी लगाने की ज़िम्मेदारी मैंने ले ली थी, जिसके लिए अगले दिन शाम को उसके घर जाना था लेकिन अंधेरे में अकेले कैसे लौटूंगी, मुझे यह डर सता रहा था। महिला संगीत के दौरान जब मैं अपनी यह समस्या बता रही थी तो कुछ लड़कियों के बीच में से एक दुबली-पतली सी लड़की तपाक से बोली, "अरे बोज़्यू (पहाड़ में भाभी के लिए संबोधन), डर क्यों रहे हो, मैं छोड़ दूंगी आपको घर। मैंने पहली बार उस लड़की को देखा था, मैंने कहा, "फिर तुम्हें भी तो घर छोड़ने जाना पड़ेगा किसी को….कहां रहती हो?" मेरे जवाब से उसके चेहरे पर साफ नागवारी के भाव उभरे। "क्यों मुझे नहीं पहचान रहे हो बोज्यू, मैं नीमा हूं आपके पड़ोस में तो रहती हूं।"


यह पहली बार नहीं था कि मुझे अपने आसपास के लोगों से कोई मतलब नहीं रखने के शहरी रवैये के चलते शर्मिंदा होना पड़ा था...इसलिए तुरंत झेंपते हुए सफाई दी, "अरे नीमा तू है...बहुत दिनों बाद दिख रही है इसलिए पहचान नहीं पाई।" जबकि सच तो यह था कि मैंने सचमुच उसे पहली बार देखा था और पड़ोस में रहने वाली बात तो और भी चकराने वाली थी क्योंकि जहां मैं रहती हूं वहां चारों ओर सिर्फ जंगल है और दूर केवल एक घर नज़र आता है जहां रहने वाले केयरटेकर के परिवार को मैं जानती थी इसलिए पता था कि वहां नीमा नाम की कोई लड़की नहीं रहती। बहरहाल दूसरे दिन शाम को शादी में मैं जब दुल्हन के हाथ में मेंहदी लगा रही थी तो पिछले दिन की तरह उस दिन भी आसपास की कई सारी लड़कियां वहां जमा थीं जो दुल्हन की सहेलियां थीं। सबसे ज़्यादा चुहलबाजी नीमा ही कर रही थी। दुल्हन के हाथ में मेरी लगाई मेहंदी सराहते हुए उसने कहा, "बोज़्यू मेरी शादी में भी मेहंदी आप ही लगाना....ठीक है?" सारी लड़कियां ढकती-छिपाती शर्मिली हंसी के बीच उसे झिड़कते हुए कहने लगी, "छि रे...कैसी है ये नीमा...देखो तो कैसी बेशर्म की तरह अपनी शादी की बात कर रही है। नीमा तुरंत पलट कर बोली, "क्यों रे..तुम लोग नहीं करने वाले हो क्या शादी? इनके सामने क्या शर्माना...हैं ना बोज़्यू?  मैं चुपचाप हंसते हुए उनकी बातें सुन रही थी।


वापस लौटते हुए जब मैं नीमा से बात करने लगी तब मुझे अंदाज़ा हुआ कि शादी उसके लिए युवावस्था में कदम रख रही एक लड़की की स्वाभाविक इच्छा नहीं थी वो उसकी एकमात्र उम्मीद थी उस माहौल से निकलने की जहां उसकी उम्र की खूबसूरती का साथ देने के लिए कुछ भी नहीं था। उसी ने बताया कि मेरे घर की पीछे से ऊपर की ओर बांज के जंगल के बीच जो पगडंडी जाती है उसी के मुहाने पर जो घर है वहीं वह रहती है। "घर में कौन-कौन हैं?" मुझे सचमुच खुद पर शर्म आ रही थी कि मेरे इतने पास में कोई परिवार रहता है जिसके बारे में इतना समय यहां रहने के बावजूद मुझे कुछ नहीं पता। "बाबू तो घर छोड़ कर चले गए, ईजा है, एक भाई दिल्ली में नौकरी करता है,  बड़ा भाई है उसका पैर खराब है इसलिए बेकार बैठा है।
"तू स्कूल जाती है?"
"नहीं तो...पहले जाती थी नौ में थी तो ददा का पैर टूट गया। ईजा रोज उसे दिखाने कभी हल्द्वानी, कभी अल्मोड़ा ही जाने में रहने वाली हुई...फिर घर का कौन करता...भैंस भी तो ठैरी...दूध देने वाली हुई नहीं..खाली घास लाने का काम बढ़ाना हुआ उसने भी...फिर कैसे जाती स्कूल इसलिए छोड़ दिया। अब तो तीन-चार साल जो हो गए स्कूल छोड़े।" खालिस कुमाउंनी लटक वाली हिंदी में उसने अपनी स्थिति बयान की।


मुझे छोड़ कर जब वो जाने लगी तो उसकी नानुकुर के बावजूद मैंने उसे अकेले नहीं भेजा। अगले दिन खोजबीन करने पर पता चला कि उसके भाई की, जो अच्छा-खासा स्वस्थ जवान लड़का था, तीन चार साल पहले गिरने की वजह से एक पैर की हड्डी टूट गई थी जिसे जोड़ने के लिए डॉक्टरों ने स्टील की रॉड डाल दी थी, फिर हुआ ये कि कुछ अरसे बाद उसी पैर में दोबारा चोट लग गई जिससे अंदर पड़ी रॉड टूट गई। गरीबी के चलते पैर का इलाज अच्छी तरह नहीं हो सका और एक बड़ा घाव बन गया जो हमेशा रिसता रहता था। जवान लड़का था, इतने समय तक पैर के चलते लाचार हो जाने से वह अवसादग्रस्त हो गया था। धीरे-धीरे जड़ जमाते स्रिजोफेनिया से वह बहुत आक्रामक हो गया था और जब-तब गुस्से में मां और बहन को मारने पर आमादा हो जाता था। कभी-कभी तो मां-बेटी को घर से भाग कर जंगल में छिप कर जान बचानी पड़ती थी। थोड़ी ही दूरी पर उनके रिश्तेदारों के घर थे लेकिन आपसी राग-द्वेष रिश्तों पर भारी पड़ने की वजह से उनका कोई सहयोग नहीं मिलता था।


उस दौरान उसके पैर का घाव कुछ ज़्यादा ही रिसने लगा था तो बेचारी मां जब उसे ले कर अल्मोड़ा दिखाने गई तो किसी डॉक्टर ने उसे डरा दिया कि ये तो गैंगरीन हो गया है अब पैर काटने के सिवा कोई चारा नहीं है। यह बात नीमा से मेरी पहली मुलाकात से कुछ दिन पहले की ही थी इसलिए नीमा भाई को ले कर बहुत परेशान थी। इसे संयोग ही कहना होगा कि अगले ही दिन हल्द्वानी के एक अस्थि रोग विशेषज्ञ यूं हीं कहीं से घूमते-फिरते हमारे यहां कुछ देर के लिए आए। जैसे ही पता लगा कि वह हड्डियों के डॉक्टर हैं उन्हें नीमा के भाई के बारे में बताया गया तो उन्होंने कहा कि वह  मरीज़ को देखना चाहेंगे। उसका मुआयना करने के बात पाया गया कि इलाज संभव है। खैर लंबी कहानी का लब्बोलुआन ये कि दो ऑपरेशन के बाद उसका पैर बिल्कुल ठीक हो गया और वह चलने फिरने लगा


अब नीमा और उसकी ईजा से मेरा अक्सर रोज़ ही मिलना हो जाता था और उनसे अजब सा मोह भी हो गया था। उनकी बातें सुन-सुन कर मुझे औरतों के दुखों की रोज नई सीमाएं तय करने पर मजबूर होना पड़ता था। अगले एक-डेढ़ साल में उनके हालात कुछ बेहतरी के लिए बदले। नीमा के भाई की दिमागी बीमारी का इलाज भी अब चालू हो गया था और उसके व्यवहार में काफी सुधार आ गया था। नीमा की ईजा रिश्तेदारी में जहां-तहां हाथ-पांव जोड़ मिन्नतें करने के बाद उसके लिए एक रिश्ता जुटा लाई। लड़की की शादी के बहाने नाराज़ हो कर दूसरे गांव में रह रहे उसके बाबू भी घर लौट आए थे। उनके घरेलू मसले में अपनी आत्मियता के बल पर जितना भी हक जता सकती थी उसका पूरा इस्तेमाल करते हुए मैं कम से कम इतना तो सुनिश्चित करने में कामयाब रही थी कि नीमा किसी दबाव में आ कर शादी न करे, लड़का उसे पसंद हो, व्यसनी न हो और एक अदद ठीक-ठाक नौकरी उसके पास हो। नीमा की शादी के सामान की खरीददारी मैंने जिस मन से और जिस खुले दिल के साथ की मैंने खुद की शादी के लिए भी नहीं थी, शायद ये मेरा अपनी इतनी नज़दीकी पड़ोसी के दुखों से इतने समय तक अनजान रहने का अपराधबोध कम करने का ज़रिया था।


बहरहाल, नीमा खुश थी उसे लड़का पसंद आया था। ससुराल में खेती-बाड़ी होती थी और वो लोग संपन्न थे। नीमा जब ससुराल से पहली बार आई थी तो उसने खूब हंस-हंस कर वहां के लोगों के बोलने की नकल करके बताई। "बोज्यू, पता नही हो क्या बोलते हैं मुझे तो कुछ समझ नहीं आता। मेरे ससुरजी कहते हैं हमारी बहू तो अंग्रेज़ी बोलती है, देखो तो मेरी हिंदी को जो अंग्रेज़ी कह रहे हैं...अंग्रेज़ी जो बोल दूंगी तो पता नहीं क्या समझेंगे।" और फिर वही अपनी वही चिरपरिचित खिलखिल हंसी। पता नहीं इतने कष्टों, दुखों के बीच भी वह अपनी सहज हंसी को कैसे बचा ले गई थी। लेकिन उसी हंसी के चलते मुझे डर भी लगता था कि कहीं इसके नीचे फिर कोई दुख तो नहीं छुपा रही है ये लड़की।
इसलिए पूछा, "तू सचमुच खुश तो है न नीमा?”

अबकी बार उसने मेरी आंखों से आंखे मिलाते हुए बहुत शांत आवाज में कहा, "हां बोज़्यू, अब मैं खुश हूं। वो मेरा बहुत ध्यान रखते हैं, उनके यहां औरतें घूंघट करती हैं लेकिन मैंने उनसे कहा कि मुझसे सिर नहीं ढका जाता तो उन्होंने कहा कि ठीक हैं तो मत ढको। उनके घर में औरतों से खेतों का काम नहीं कराते, वो सिर्फ घर का कामकाज करती हैं। यहां घर-बण-जानवरों के साथ इतना खटने के बाद मुझे वहां की जिंदगी बहुत आराम की लगती है। वहां सब मुझे बहुत प्यार करते हैं, सोचते हैं मैं छोटी हूं...पूछते हैं मुझे बाज़ार से कुछ सामान तो नहीं मंगाना, इनकी छुट्टी होती है तो मुझे घुमाने भी ले जाते हैं देखो इतनी जल्दी मैं वृंदावन भी घूम आई जबकि शादी से पहले मैं सिर्फ तीन बार गांव से बाहर कहीं गई थी, दो बार तल्ला रामगढ़ और एक बार अल्मोड़ा। बोज़्यू मैं खुश हूं लेकिन....."

"...लेकिन क्या नीमा?" मेरा दिल एक बार सहम सा गया।

"बोज्यू वहां मुझे जंगल की बहुत याद आती है, सच्ची कहूं वहां बहुत कम पेड़ हैं। दूर तक खेत ही खेत हैं बीच-बीच में पेड़ों की पतली सी लाइन। पेड़ भी पता नहीं कौन-कौन से हैं बांज जैसा कोई नहीं। मुझे सपने आते हैं कि मैं भैंस को घास चराने जंगल गई हूं और बांज के पेड़ के नीचे लेटी हूं। बोज्यू सच्ची बहुत नराई लगती है कहा जंगल की मुझे"....कहते-कहते आंख भर आई नीमा की। अब तक नीमा को जानते हुए मुझे कुछ साल हो चुके थे, अपने घर में मां-बाप के कलह, उनके झगड़ों के चलते जगहंसाई, चाचा-ताई के परिवार की उपेक्षा और प्रताड़ना भरे व्यवहार, भाई की बीमारी जैसी कई मुश्किल बातें उसने कई बार मुझसे साझा की थी लेकिन बिल्कुल तटस्थ भाव से जैसे किसी और की तकलीफों की बात कर रही हो। आज पहली बार उसकी आंखों में आंसू थे....किसके लिए? जंगल के लिए।


है न अजीब सी बात? शायद नहीं....वो सिर्फ जंगल नहीं होगा नीमा के लिए। सोचो तो नीमा जैसी घुटनभरी परिस्थितियों में रहने वाली किसी लड़की के लिए  क्या मायने रहे होंगे जंगल के? एक जगह जहां वो तमाम परेशानियां कुछ देर के लिए ही सही भूल सकती हो, शायद कुछ पेड़ हों जिनके साथ वह अपने सपने साझा करती हो, अपने दुख बांट कर हल्का करती हो। वरना हंस-हंस कर हर दुख सह जाने वाली नीमा प्यासे को पानी की तरह अपने नए-नए मिले सुखों के बीच एक जंगल को याद करके क्यों रोती। मेरा गला भर आया था समझ नहीं आ रहा था उसे क्या कहूं।


फिर आंसू पोछ कर अपनी उसी शरारती हंसी के साथ उसने कहा, "अपना जंगल मुझे अब वहीं बनाना पड़ेगा। इस साल बरसात में मैंने अपने घर के आगे छह-साल पेड़ लगा दिये हैं, एकाध तो फल के पेड़ हैं बाकी पता नहीं किसके थे, मुझे अच्छे लगे मैंने रोप दिए। सब जम गए हैं। बोज्यू बांज जम जाएगा क्या वहां?  ईजा कह रही थी खुबानी, पुलम तो नहीं जमेंगे वहां। इस बार आढ़ू और बांज लगा कर देखूंगी क्या पता लग ही जाएं। बोज्यू वहां हमारा घर खूब बड़ा है, पीछे को एक खिड़की खुलती है वहीं रोपूंगी बांज........नीमा बोलती जा रही थी और मैं चुपचाप सुन रही थी।

पता नहीं नीमा ने पिछली बरसात में अपने पहाड़ के पेड़ रोपे या नहीं....फिलहाल गर्मियां आ चुकी हैं और मैं पहाड़ की ठंडी हवा के बीच नीमा को याद कर रही हूं।

अक्तूबर 20, 2010

छप चुका है सब!!

(उसी फटती डायरी से अलग हुए एक और पन्ने पर लिखी कुछ पंक्तियां)

लिखा जा चुका है सब पर,
धरती, आकाश और इन दोनों के बीच
मौजूद हर चीज़ पर
जिंदा आदमी से जुड़ी-अनजुड़ी
हर चीज़ पर

सुख इतना सारा मन के अंदर का
सब फैल चुका कागज़ पर
सुख बसंत सा और न जाने कितनी
सुखद उपमाओं वाला,
और दुख तो जैसे
अनवरत बहती नदी कागज़ पर

मरते, बीमार, असहाय, सहमें
लोगों का दुःख भी उनके जाने बिना ही
दुबका है किताबों में
बताता है बड़े लोगों राजपुरुषों को
देखो मैं ऐसा हूं उन अभागे लोगों के बीच

विरक्ति भी, भाव भी, प्रेम भी
अपने हर संभव कोण में
ढल चुके हैं अक्षरों में
कभी-कभी तो मन भी हार जाता है
इतने व्यवस्थित किताबी सुख-दुख से
अनगढ़ा मिट्टी के लौंदे जैसा दुख
और कुछ वैसा ही सुख भी

अब जबकि कम होती जा रही हैं
अनुभूतियां दिन ब दिन,
किताबों में छपने के लिए
नए-नए अक्षर गढ़े जा रहे हैं
समय के छापेखाने में

थोड़े से दिन और हो जाएंगे जब
तब शायद ये सब रह जाएंगे सिर्फ किताबों में!

अक्तूबर 06, 2010

सपने

(17 साल पहले लिखी कवितानुमा कोई चीज़! फटती-उधड़ती बचपन की डायरी के अलग हो गए पन्ने पर लिखी इन पंक्तियों को अस्तित्वहीन होने से बचाने के लिए यहां डालने का लोभ रोका नहीं गया)

आंखों के पथरा जाने से बेहतर है
उनका आंसुओं से भरे रहना,
जिन्हें बहाया जा सके रोकर
ताकि उसके बाद जगह हो
आंखों में, उम्मीदों के लिए
सपने बसने चाहिए आंखों में, हाथों में
सपनों को बुन कर मत खो जाने दो
दिमाग की पेंचिदा गलियों में
भटकने के लिए
सपने बनते हैं हकीकत, अगर
कुचले न जाएं सपनों के ही बोझ से
सपनों को सींचना पड़ता है उम्मीद से
वरना हवा में तैरते सपने अक्सर
बदल देते हैं अपना खुशनुमा रंग
जिंदगी से भागते बदनुमा रंगों से
मत डूबो सपनों में
पलने दो, बढ़ने दो
फलने दो सपनों को
आंखों में, हाथों में।

सितंबर 29, 2010

घर की बातें!!

पिछले कुछ समय से मुझे 'बच्चों की परवरिश कैसे की जाए' इस विषय पर किताबें उपहार में मिलने लगी हैं, कुछ लोग किसी वेबसाइट का पता बताते हैं तो कोई कुछ और। सोशल नेटवर्किंग साइट पर भी यह मुद्दा खासा चर्चा में रहता है। खासतौर पर लड़कियों को कैसे पाला जाए कि वह बिगड़े नहीं, इस बारे में मेरी पिछले दिनों कई मांओं के साथ बातचीत हुई और अधिकांश मामलों में बच्चों को ले कर मां-बाप काफी हद तक परेशान थे। इन सब के बीच मैं यह सोच रही हूं कि जब हम भाई-बहन बड़े हो रहे थे तो अम्मा-पापा की भी तो इन्ही परेशानियों से दो-चार होना पड़ा होगा। और मुझे याद आए दो-चार ऐसे वाकये जो मेरी सीधी-साधी, कम पढ़ी-लिखी लेकिन बहुत ही व्यवहार-कुशल मां और रोबदार से दिखते लेकिन बहुत नरमदिल मेरे पापा की ज़बरदस्त 'parenting skills" को दिखाते हैं।

मुझे हमेशा यह सोच कर हैरत होती है कि आजकल तमाम सुख-सुविधाओं के बीच एक या दो बच्चों को पालने में दिक्कत होती है तब अम्मा के लिए हम पांचों को पाल पाना कितना मुश्किल रहा होगा। जब रसोई में गैस जैसी साधारण सुविधा भी नहीं थी।
बहरहाल, बात हो रही थी उनकी ‘parenting skills’ की तो सबसे पहली बात मुझे जो याद आ रही है वो मेरी किताबें पढ़ने की आदत की है। हां, पढ़ने का चस्का लगाने के पीछे भी मेरे पापा का ही हाथ था। हम तब देहरादून में रहते थे और मैं मुश्किल से पहली या दूसरी कक्षा में पढ़ती थी। तभी से पापा मेरे लिए नंदन, चंपक और चंदामामा किताबें लाते थे। पापा की तनखा मामूली सी थी हालांकि वह बहुत कमाऊ विभाग में थे लेकिन उनके बहुत ही धर्मभीरू किस्म के होने के चलते हमारी आर्थिक दशा में उससे कभी कोई फर्क नहीं पड़ा। सो बंधी-बंधाई तनखा, किराए का मकान, घर में लगे रहने वाली रिश्तेदारों की भीड़ के बावजूद किताबों के लिए खर्च करने में उन्होंने कभी कोई कोताही नहीं की। साथ ही धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान भी लगा हुआ था। नया-नया पढ़ना सीखने के कारण मेरे हाथ जो लगता था उसे ही पढ़ने की कोशिश करती थी। फिर एक दिन एक रिश्तेदार के घर रखी किताबें टटोलते हुए सबसे पहले एक घटिया चलताऊ किस्म का उपन्यास पढ़ा और फिर जैसे उस तरह की किताबें पढ़ने का चस्का लग गया। तब मैं केवल तीसरी या चौथी कक्षा में थी।

तब उपन्यास पढ़ना गंदी बात समझी जाती थी ज़ाहिरी तौर पर जिस तरह के उपन्यास मैं पढ़ने लगी थी वह घटिया थे, विशेषकर उस उम्र के लिए। यह बात मुझे भी पता थी इसलिए ये उपन्यास सबसे छुप कर पढ़े जाते थे। एक दिन अम्मा ने पाया कि मैं जून की झुलसती गर्मीं में छत की सीढ़ियों में छिप कर उपन्यास पढ़ रही हूं। अम्मा ने किताब की बाबत एक शब्द भी नहीं कहा जबकि यूं रंगे-हाथों पकड़े जाने से मेरी जान सूख गई थी। उसी शाम पापा ने मुझे बुला कर पूछा कि मैं क्या पढ़ रही हूं और कहां से लाई वगैरह-वगैरह। आमतौर पर डांट-डपट करने वाले पापा ने यह सब बहुत शांति से पूछा था और कहा कि ये किताबें तुम्हारे लायक नहीं है, इन्हें मत पढ़ा करो। कुछ दिनों बाद ही पापा मेरे लिए एक उपन्यास लाए शिवानी की लिखी भैरवी मुझे वह पढ़ कर बहुत मज़ा आया क्योंकि पता नहीं क्यों बच्चों की कहानियां मुझे बहुत बचकानी लगती थीं, जब मैं बच्ची थी तब भी। इसलिए मेरे लिए यह किताब चुनना पापा की समझदारी ही दिखाता है। उसके बाद नियमित अंतराल के बाद मुझे साहित्यिक उपन्यास, रादुका से प्रकाशित रूसी साहित्य की किताबें मिलती रहीं और बाज़ारू किस्म के उपन्यासों से मेरा मन कब उचाट हुआ मुझे पता ही नहीं चला।


अभी मैं इस पूरी स्थिति का आंकलन करती हूं तो मैं आश्चर्य करती हूं कि कितनी सहजता से मुझे अहसास कराए बिना मेरी पढ़ने की आदत को एक सही दिशा दिखा थी। वो भी तब जबकि साहित्य वगैरह के बारे में उनका रुझान ज़्यादा नहीं था। जितना मैं खुद को जानती हूं मुझे पूरा यकींन है कि अगर तब मुझे डांट कर मना किया जाता तो मैं और भी घटिया किताबों को पढ़ने के लिए चुन कर उनके खिलाफ अपना विद्रोह ज़ाहिर कर सकती थी।


हम तीन बहनें थी, एक खास उम्र के बाद यह बात मोहल्ले वालों की नज़रों को और चौकस बना देती है और गली-मोहल्ले के शोहदों को और सक्रिय। हम लोग छोटे शहरों की अच्छी लड़कियों के लिए निर्धारित सभी नियमों का पूरी तरह से पालन करती थीं। हमेशा सिर झुका कर चलना, शोहदों के फिकरों को सुन कर भी अनसुनी कर निकल जाना और कुछ भी हो जाए सार्वजनिक जगहों पर लड़कों से बातें न करना। ऐसा किसी ने हमें कहा नहीं था लेकिन पता नहीं कैसे ये कायदे-कानून हर बड़ी हो रही लड़की को पता होते थे, क्योंकि बिगड़ी लड़की का तमगा मिलना बहुत ही आसान होता था जिससे सब डरती थीं। मैं इतना ज़्यादा डरी रहती थी कि कभी किसी से बात करनी पड़ जाए तो मैं डर से हकलाने लगती थी और चेहरे की सारी नसें तन जाती थी। यह एक तरह का फोबिया था। ऐसे हालातों में घर के अंदर रहना ही सबसे अच्छा विकल्प होता था, असर यह हुआ कि मैं तो पूरी तरह घरघुस्सु हो गई थी। मुहल्ले में एक-दो सहेलियों को छोड़ कर और किसी के घर जाने की कभी हिम्मत ही नहीं होती थी।
हमारे पड़ोस में एक परिवार रहता था जिसमें मुझसे कुछ बड़ी उम्र के तीन भाई थे ज़ाहिरी तौर पर इसलिए उस घर में जाने का तो सवाल ही नहीं था। एक बार दीवाली में उनके किसी करीबी रिश्तेदार की मौत होने के चलते त्यौहार नहीं मनाया जा रहा था। चूंकि उन दिनों मोहल्ले के रिश्ते काफी करीबी हुआ करते थे तो अम्मा ने उनके लिए भी गुझिया बना डाली ताकि बेचारे बच्चे तो त्यौहार के दिन मिठाई से वंचित न रहें। गुझिया पहुंचाने की जिम्मेदारी मुझे दी गई, क्योंकि अंम्मा और पापा ही लड़कों को ले कर मेरे अंदर बैठे इस डर से पूरी तरह से नावाकिफ थे तो उन्हें बहुत गुस्सा आया जब मैंने कहा कि मैं नहीं जाउंगी वहां। पापा ने कहा कि ये तो तुम्हें ही दे कर आने होंगे। अब एक तरफ वो फोबिया था दूसरी तरफ पापा से डांट खाने का डर। मैं किसी तरह घसीटते हुए बिल्कुल अपने घर से जुड़े उनके घर के गेट तक तो पहुंच गई लेकिन उन्हें आवाज़ देने या गेट खटखटाने की हिम्मत ही नहीं हुई। हाथ-पैर जैसे जम से गए थे, मैं वापस आ गई और रोने लगी। पापा ने पूछा क्या बात है? मैंने कहा कि मुझे वहां जाने में डर लग रहा है। और पता नहीं पापा क्या और कैसे समझे उन्होंने मुझसे कहा कि, “बेटा ऐसे डर के ज़िंदगी थोड़ी चलेगी। जा कर दे कर आओ।"


हालांकि उन्होंने इसके अलावा कुछ भी नहीं कहा लेकिन पता नहीं मुझे इतनी हिम्मत कैसे आई। मैं सीधे गई, गेट पर आंटी को आवाज़ लगाई जिसे सुन कर उनका बेटा बाहर आया और मैंने उसे मिठाई पकड़ा दी। वो लड़का स्कूल में मुझसे एक क्लास आगे था। उन्हीं दिनों तिमाही या छमाहीं परीक्षा के परिणाम निकले थे। वो लड़का अपनी क्लास में और मैं अपनी क्लास में प्रथम आए थे। जब मैंने उसे मिठाई दी तो उसने बहुत ही सहजता से पूछा, "तेरे गणित में कितने नंबर हैं?" मैंने बिना हकलाए या झेंपे उसे अपने नंबर बताए और फिर हमने थोड़ी देर ऐसी ही कुछ और बातें की और मैं वापस आ गई। "चमत्कार!! इतना आसान था इस फोबिया से बाहर निकलना…!!"


मैं सोच कर हैरान रह जाती हूं कि पापा ने कभी पेरेंटिंग पर या वैसे भी कोई बहुत ज़्यादा किताबें नहीं पढ़ी उसके बावजूद वो कितनी अच्छी तरह समझ गए मेरी परेशानी और उसका उपाय। आज मैं सबसे बहुत खुल कर बातचीत कर लेती हूं, अपरिचितों के साथ आसानी से दोस्ती कर लेती हूं तो इसका श्रेय निसंदेह मेरे पापा की parenting skills को जाता है।


हमारे कस्बे में नए-नए खुले डिग्री कॉलेज में क्योंकि विज्ञान की कक्षाएं नहीं थीं इसलिए बारहवीं के बाद पढ़ने के लिए नैनीताल गई। मेरे कुछ रिश्तेदारों ने इस फैसले का बहुत विरोध किया कि पांच बच्चों का खर्च उठाना है, वैसे भी दो-चार साल बाद लड़की को शादी करके विदा करो...हॉस्टल में डाल कर क्यों पैसे खर्च करते हो। पापा आर्थिक से ज़्यादा इस बात को सोच कर मेरे नैनीताल जाने के पक्ष में नहीं थे कि वो मेरे बिना कैसे रहेंगे। लेकिन इस बार झंडा मेरी मां ने उठा लिया था कि मेरी लड़की पढ़ने के लिए नैनीताल ही जाएगी किसी रिश्तेदार के घर पर रह कर नहीं पढ़ेगी। दरअसल मेरी मां को उनके सख्तमिजाज़ दादा जी की वजह से ही बहुत जल्दी ही स्कूल छोड़ कर घर के कामकाज में लग जाना पड़ा था इसलिए पढ़ने की साध वह अपनी लड़कियों के जरिए पूरा करना चाहती थी।

इस तरह आगे की पढ़ाई के लिए पांच साल नैनीताल रहना हुआ जहां बहुत सारे दोस्त बने, खासतौर पर युगमंच के साथ सक्रियता के दिनों में। छुट्टियों में दोस्तों की चिट्ठियां आती थी जिसमें कभी-कभार किसी लड़के की भी होती थी। जिनके बारे में बिना किसी हिचक के अम्मा-पापा को बताती थी। स्कूल के दिनों में जहां मेरी क्लास की दूसरी लड़कियों को स्काउट-गाइड के कैंप वगैरह में जाने के लिए घर में मिन्नतें करनी पड़ती थीं। हमारे घर में इसके लिए कभी रोक-टोक नहीं हुई, बल्कि हर कैंप में जाने, वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था। हमारे घर में दोस्तों का निस्संकोच आना-जाना होता था जिसके बारे में मेरे घर वालों को कोई परेशानी नहीं होती थी लेकिन कुछ पड़ोसियों के माथे पर बल पड़ते थे। शायद एक दिन अम्मा ने कहीं कुछ सुन लिया तो वह कुछ परेशान थी और उन्होंने इस बाबत कुछ चिंता ज़ाहिर की थी लेकिन पापा ने एक टूक कहा कि, “मैं चाहता हूं कि मेरे बच्चे बिना किसी कुंठा के रहें, अगर किसी को इससे किसी को दिक्कत है तो हम क्या कर सकते हैं। " मैं उनकी बात अब तक नहीं भूली।


मैं जानती हूं कि मेरे पापा विचारों के मामले में बहुत आधुनिक नहीं हैं लेकिन उस समय उनकी यह बात सुन कर मुझे गर्व हुआ और मैंने हमेशा कोशिश की कि मेरे किसी भी काम से पापा के इस विश्वास को ठेस नहीं पहुंचनी चाहिए। जब मैंने एक अलग धर्म के लड़के से शादी करने का फैसला किया तब भी पापा को मेरे चुनाव पर तो भरोसा था लेकिन शुरुआत में उनकी बहुत ही हल्की सी आनाकानी के पीछे वजह वजह थी कि उन्हें यही नहीं पता था कि लड़का कुछ कमाता-धमाता भी है या नहीं। एक पिता के तौर पर उनकी चिंता बहुत स्वाभाविक थी लेकिन एक बहुत ही संकीर्ण विचारधारा वाले और बहुत कम दुनिया देखे हमारे संयुक्त परिवार के दबाव के बावजूद अम्मा-पापा ने जिस सहजता से मेरे फैसले का समर्थन किया वह अपने आप में एक क्रांतिकारी कदम था उनके स्तर पर। इसके लिए मैं हमेशा उनकी आभारी रहूंगी।


एक किस्सा और याद आ रहा है वह दिल्ली के दिनों का है। नैनीताल में युगमंच के दौरान दोस्तों के साथ बेबाक हंसी-मज़ाक की आदत पड़ी होने के चलते मैं हर किसी के साथ बहुत सहजता से बात कर लेती थी। लेकिन हिंदी अखबारों का माहौल थियेटर से बहुत अलग होता है, यह बात मुझे तब समझ आई जब कई सारे दोस्तों ने मेरी हंसी-मज़ाक के कुछ और ही मतलब निकालने शुरू कर दिये। खैर, एक महाशय थे जिन्हें मैं बहुत ही परिपक्व और बहुत खुले दिमाग वाला दोस्त समझती थी। तो एक छुट्टी में मैं जब अपने घर आई थी तो उन महाशय ने कहीं से मेरे घर का फोन नंबर पता कर लिया और एक दिन उनका फोन आ गया। मुझे इस बात पर इतना गुस्सा आया कि उधर से कही जा रही बात सुने बिना मैंने जो जी में आया डांटने के बाद फोन रख दिया। यह सब अम्मा-पापा के सामने हुआ। दोनों में से कोई कुछ नहीं बोला। अगले दिन अम्मा ने कहा, "तूने उसकी बात तो सुनी ही नहीं, बिना सुने इस तरह किसी को इस तरह उल्टा-सीधा बोलना अच्छी बात नहीं है।" मैंने कहा, “तुझे कुछ पता नहीं अम्मा, लोग कैसे-कैसे होते हैं।" अम्मा ने कहा, "हो सकता है कि तू उसे मुझसे अच्छी तरह जानती है, लेकिन अगर उसकी बात सुन लेती तो शायद तू उसे और अच्छी तरह से जान जाती चाहे उसकी बुराई ही सही! कभी भी किसी का अपमान नहीं करना चाहिए, ऐसे में तो कोई भी तेरा दुश्मन बन जाएगा। तुझे उससे बात नहीं करनी थी उसे सीधे शब्दों में कहती तो वह समझ भी जाता और उसे बुरा भी नहीं लगता। किसी का दिल नहीं दुखाना चाहिए!"

सच कहूं तो मैं हतप्रभ रह गई थी अम्मा की वह बात सुन कर। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मेरी कम पढ़ी-लिखी मां दुनियादारी के साथ मानव मन की बातों को इतनी अच्छी तरह से समझती है। सामान्य तौर पर उसे खुश होना चाहिए कि मैंने किसी लड़के को उसकी "गलत हरकत" के लिए इस तरह से डांटा, लेकिन उसने मेरी खामी को देखा और समझाया। बाद में इस तरह की परिस्थितियों से निपटने के लिए मैं अम्मा का सुझाया रास्ता ही अपनाती थी, जिसका परिणाम यह हुआ कि इस तरह की पहल करने वाले कुछ दोस्तों के साथ बिना कोई कड़वाहट के बाद में भी अच्छी बोलचाल वाले रिश्ते बने रहे। क्या कहूं इसे? कुछ और या अम्मा की parenting skills!! :-)

ऐसा नहीं है कि अम्मा-पापा बिल्कुल आदर्श अभिभावक थे। हो सकता है कि उनकी जिन बातों से मुझे नई समझ मिली, उन्हें बिना उसके मनोवैज्ञानिक परिणामों के बारे में जाने बिना बस अपनी सहज बुद्धि के आधार पर कहा गया हो। कई बातों को ले कर मेरी उनसे लड़ाइयां होती थी। पापा से अब तक होती हैं, लेकिन बहुत सारे मामलों में वो अपने समय से आगे के साबित हुए हैं खास कर हमारी जैसी सामाजिक-पारिवारिक परिस्थितियों में और उसके लिए मुझे उन पर बहुत गर्व है। हम सभी भाई-बहनों ने बहुत ही सहज, खुशनुमा बचपन बिताया और सब आत्मनिर्भर और अपनी स्वतंत्र सोच वाले हैं तो इसके पीछे अम्मा-पापा की कर्मठ और जिम्मेदार अभिभावक की भूमिका का भी हाथ है। हम सब भाई-बहनों के पास ऐसे ही कोई न कोई किस्से हैं जिन्हें अब, जब हम खुद मां-बाप बन चुके हैं, बहुत शिद्दत से याद करते हैं।

सितंबर 26, 2010

राग और जोश

अभी-अभी एक बहुत ही दिलचस्प किताब पढ़ कर खत्म की है। शीला धर की लिखी इस किताब का नाम है 'raga'n josh'। पढ़ने में इतना मज़ा आया कि बस मन किया इसे अपनी ऑनलाइन डायरी यानी इस ब्लॉग में दर्ज़ कर लिया जाए। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की जानी-मानी गायिका शीला धर ने अपनी इस प्यारी सी किताब में संगीत की बड़ी-बड़ी शख्सियतों से इतनी आत्मीयता से अपने पाठकों से मिलवाया है कि लगता है आप उनसे सचमुच मिल चुके हैं। शीला जी एक गायिका होने के साथ-साथ एक उच्च पदासीन अधिकारी की पत्नी भी थी और खुद कई सालों तक प्रकाशन विभाग में संपादक की सरकारी नौकरी में रहीं। वह दिल्ली के पुराने संभ्रांत माथुर परिवार में पैदा हुई थीं, एक खानदानी कायस्थ परिवार की परंपराओं की रोचक बानगियां भी इस किताब में है।


'raga'n josh' पढ़ते हुए लगता है कि जैसे घर भर के लोग किसी सर्द रात में गर्म रज़ाइयों में घुस कर किसी हंसोड़ मौसी या बुआ से पुराने किस्से सुन रहे हों। शीला धर का हास्यबोध इतने गज़ब का है कि कई बार आप हंस-हंस कर लोटपोट हो जाते हैं। कम से कम मुझे तो याद नहीं कि पिछली बार किस किताब को पढ़ कर मैं इतना हंसी होऊंगी। इससे यह मत मान लीजिएगा कि यह कोई हल्की-फुल्की मज़ाकिया किताब है, ऐसा बिल्कुल नहीं है। दरअसल यह किताब दो हिस्सों में हैं। पहला "Here's is someone I'd like you to meet" में उन्होंने दिल्ली के नंबर सेवन सिविल लांइस पते वाले घर में बीते अपने बचपन की बातों को याद करने के साथ-साथ संगीत की दुनिया के दिग्गजों के बारे में इतनी दिलचस्प बातें बताईं हैं जो कोई उन्हें बहुत करीब से जानने वाला ही बता सकता है। उन बातों को जानने में ऐसा ही रस मिलता है जो अक्सर घरों में एक-दूसरे के बारे में होने वाली गुप-चुप खुसफुसाहटों में मिलता है।



शीला जी की बातों की इस महफिल में कोई छोटे-मोटे लोग नहीं बल्कि खुद बड़े गुलाम अली खान, बुंदु खान, प्राण नाथ, बेगम अख्तर, सिद्देश्वरी, केसर बाई केरकर , भीमसेन जोशी और उनके उस्ताद फैयाज़ अहमद खान जैसे लोग शामिल हैं। शास्त्रीय संगीत का ककहरा भी जानने वाले लोग इन नामों का वज़न जानते हैं लेकिन शीला जी की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि उनकी बातों में ये सारे लोग अपने ईश्वरीय बढ़प्पन के साथ नहीं बल्कि पूरी मानवीय विशेषताओं के साथ आते हैं जो कभी उन्हें बहुत खास तो कहीं बिल्कुल आम लोगों जैसा बनाती हैं। जहां उनकी कमियां सामने आती हैं तो वो भी उन्हें किसी तरह से कमतर नहीं बल्कि और भी मानवीय बनाती हैं। इस जटिल सी बात को शीला जी इतनी प्यारी तरह से लिखती हैं कि पाठक को दाद देनी ही पड़ती है।


बचपन के अपने पारिवारिक जीवन के बारे में बताते हुए वह न केवल अपनी मां के दुखद दांपत्य जीवन का जिक्र करती हैं बल्कि एक तरीके से भारतीय घरों में औरतों की बंधनपूर्ण जीवन का खाका भी खींचती हैं। उनके जीवन में एक पिता हैं जो अपनी पत्नी को मामूली नैन-नक्श होने के चलते न केवल नापसंद करते हैं बल्कि कुछ हद तक क्रूरता भरा व्यवहार भी करते हैं और यह बात उनके तीनों बच्चे समझते हैं और दुखी होते हैं। पिता की बेरुखी की वजह से खाते-पीते संयुक्त परिवार में मां और बच्चों के साथ होने वाले उपेक्षा भरे व्यवहार को शीला जी समझती है और उसकी सामाजिक मनोवैज्ञानिक स्तर पर व्याख्या भी करती हैं। लेकिन इन्ही पिता का एक और रूप भी है जो संगीत की दुनिया में शीला जी के आगे बढ़ने की वजह भी बनता है। उनके पिता संगीत के न केवल अच्छे जानकार थे बल्कि उन्होंने अपनी युवावस्था में प्रसिद्ध विष्नु दिगंबर पलुस्कर जी से संगीत सीखा भी था। वह उन दिनों होने वाले प्रमुख संगीत उत्सवों के आयोजनों में पूरी सक्रियता से हर तरह का सहयोग देते थे। दिल्ली के कई संगीत और डांस संस्थाओं के लिए वह एक मजबूत स्तंम्भ थे। उन्होंने अपना घर संगीतज्ञों के लिए खुला छोड़ा था जिससे उस दौर के लगभग सभी बड़े कलाकार उनके यहां आ कर कई-कई दिन तक रहते थे। उन्हीं दिग्गजों की संगत में ही शीला जी ने शास्त्रीय संगीत का हाथ पकड़ा और आगे चल कर संगीत की दुनिया में अपना नाम किया।

बहरहाल अपनी इस किताब में वह बताती हैं बुंदु खान साहब के बारे में जो उनकी बचपन की यादों का अभिन्न हिस्सा रहे। उनकी जादुई सारंगी से उनके परिवार का हर उत्सव, हर त्यौहार रौनक रहता था। शीला जी याद करती है उनके भोले-निश्चल से व्यक्तित्व को जो अपनी महानता से पूरी तरह अनभिज्ञ था। एक दिन उनके परिवार ने देखा कि वह फूलों की क्यारी में लेट कर आंखे बंद कर पूरी तन्मयता से सारंगी बजा रहे हैं। पूछने पर वह भोलेपन से जवाब देते हैं कि बसंत का मौसम है इसलिए वह फूलों के लिए बजा रहे हैं।" देश के बंटवारे के बाद बुंदु खान पहले तो पाकिस्तान नहीं जाना चाहते थे लेकिन मजबूरन उन्हें जाना पड़ता है। उनकी भावपूर्ण विदाई का संस्मरण भी यहां है।


फिर बड़े गुलाम अली खान के बारे में लिखते हुए वह बताती हैं कि वह मांसाहारी खाने के कितने बड़े मुरीद थे, एक कार्यक्रम के लिए उनके दिल्ली आने पर उन्हें गलती से एक शाकाहारी घर में ठहरा दिया गया तो उन्होंने किस तरह खुद खाना बनाया और खाने के बाद तय कार्यक्रम से बहुत देर बाद आयोजन स्थल पर पहुंचे। शीला जी ने प्राण नाथ का बहुत आत्मीय विवरण दिया है वह कुछ समय तक उनके गुरु भी रहे थे। कैसे बहुत गरीबी के बाद वह अमेरिका पहुंचे और विदेश में अपना पूरा एक संगीत साम्राज्य उन्होंने तैयार किया यह सब इस किताब में हैं।



बेगम अख्तर और सिद्धेश्वरी दोनों ही उनकी करीबी थीं लेकिन आपस में व्यावसायिक प्रतिद्वंदिता रखती थी। लेकिन इन दोनों का बहुत ही लाड़ भरा परिचय शीला जी इस किताब में कराती हैं। एक बहुत ही मज़ेदार किस्सा सिद्धेश्वरी देवी की विदेश यात्रा के बारे में है जो बनारस की खांटी देसी महिला थीं।



बेगम अख्तर के बारे में कई रसभरे किस्से इसमें हैं। उनके अख्तरी बाई वाले दिनों से जुड़े रंगीन किस्से का भी इसमें जिक्र है। अपने उस्ताज फैयाज खान की गायकी के बारे में बताने के अलावा वह पाठकों को यह भी बताती हैं कि उनको पतंगे कितनी पसंद थीं। कहीं केसर बाई केरकर का जालंधर के नजदीक हरबल्लभ संगीत महोत्सव का गुणगान और फिर कई सालों बाद खुद शीला जी का इस विशिष्ट संगीत महोत्सव में भाग लेने का अनुभव है। कहीं भीमसेन जोशी की मदहोशी की चर्चा है।



संगीत के अलावा क्योंकि वह एक कामकाजी महिला और एक नौकरशाह की पत्नी भी थी तो उस जिंदगी से जुड़ी कुछ बहुत मज़ेदार यादें भी इस हिस्से में हैं, जिसमें एक में प्रकाशन विभाग में उनके गांधीवादी बॉस मोहन राव की शख्सियत के अलावा सिर्फ फाइलों में होने वाले सरकारी कामकाज पर एक बहुत ही सटीक कटाक्ष है। एक जगह गांधी फिल्म बनाने के सिलसिले में भारत आए रिचर्ड एटनबरो की मोहन राव के घर दक्षिण भारतीय खाने की दावत में हुई बुरी हालत का जिक्र है जहां पाठकों के लिए हंसी रोक पाना मुश्किल है।

उनके पति के दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स में नियुक्ति के दौरान विदेशी अर्थशास्त्रियों की पत्नियों का मनोरंजन करने का भार कभी-कभी शीला जी पर भी पड़ जाता था। ऐसे में भारतीय संगीत खासकर कर्नाटक संगीत के बारे में जानने की उत्सुक एक मिसेज हैंडरसन को शीला जी की संगत में क्या कुछ झेलना पड़ता है वह पढ़ कर ही समझ आता है।


शीला जी खुद स्वीकार करती हैं कि वह बहुत बढ़िया मिमिक्री कर लेती थी और अभिनय में उनकी बहुत दिलचस्पी थी। अब चूंकि उन्होंने कैरियर के लिए संगीत का रास्ता चुन लिया था तो अभिनय का अभ्यास वह वास्तविक परिस्थितियों में करती थीं। उनके पति श्रीमती इंदिरा गांधी के निजि सलाहकार थे तो इसलिए उन्हें अक्सर उनके साथ संभ्रांत प्रशासनिक अधिकारियों और सांसदों की पत्नियों के साथ सरकारी समारोहों में जाना होता था जहां का नितांत औपचारिक माहौल शीला जी को कतई रास नहीं आता था। उन निरस समारोहों को वह अपनी अभिनय कला से कम से कम अपने लिए तो बहुत सरस बना लेती थीं। कैसे? यह लंबा किस्सा है जानने के लिए किताब पढ़नी पढ़ेगी।



किताब के दूसरे हिस्से में शास्त्रीय संगीत के विषय में लिखे हुए उनके कुछ लेखों का संकलन है। लेकिन ये केवल तथ्य बताते निरस लेख कतई नहीं हैं बल्कि संगीत की बारिकियों को अपनी खूबसूरत भाषा में पिरो कर लिखी गई दिलचस्प बातें हैं। यहां रागों के रूप, उनकी बनावट, उनके मिजाज़ को ऐसे समझाया गया है जैसे किसी प्रियजन की बात हो रही हो। संगीत का मेरा ज्ञान बहुत ही सतही है उसके बावजूद मुझे ये लेख पढ़ने में बहुत मज़ा आया जो लोग संगीत जानते हैं उनके लिए यह किताब पढ़ना बहुत ही बढ़िया अनुभव होगा, इसका मुझे पूरा विश्वास है।


फिलहाल मैं इतनी प्रभावित कि बहुत कुछ और लिख सकती हूं लेकिन मुझे पता है कि मैं कितना भी लिखूं उसका अंशमात्र रस भी आप तक नहीं पहुंचा सकती। इसलिए संगीत की दुनिया में दिलचस्पी रखने वाले दोस्तों के लिए राय है कि यह किताब जरूर पढ़ें।

जुलाई 13, 2010

हम गरीब हैं लेकिन बहुत सारे!

बहुत साल पहले दिल्ली के अपने शुरुआती दिनों में एक हस्तशिल्प प्रदर्शनी में एक स्टॉल पर टंगा कुर्ता मुझे बहुत पसंद आया था। आमतौर पर खरीदारी से बेज़ारी के बावजूद वह कुर्ता मुझे इतना अच्छा लगा कि मैंने दाम भी पूछ लिए थे। बहरहाल तब कीमत बज़ट से बाहर लगी थी और मैंने वह नहीं खरीदा। लेकिन इतने सालों बाद मुझे यह बात अचानक याद आई और पता नहीं क्यों यह कचोट सी हुई मैंने वह कुर्ता क्यों नहीं खरीदा। दरअसल वह स्टॉल SEWA (Self Employed Women Association) का था। यह बात तो तब मुझे पता थी, लेकिन वह कुर्ता किन औरतों ने किन परिस्थितियों में किन उम्मीदों के साथ तैयार किया होगा इसका अंदाज़ा मुझे हाल ही इला आर. भट्ट की लिखी 'We are poor but so many' पढ़ कर हुआ। इस किताब को पढ़ना मेरे लिए एक अद्भुत अनुभव रहा।


गांधीवादी इला भट्ट ने अति गरीब वर्ग की कामकाजी महिलाओं को सेवा संस्था के रूप में न केवल एक मजबूत संठनात्मक रूप दिया बल्कि उन्हें बेहतर स्थितियों में सम्मानजनक जीवन जीने के अवसर प्रदान किए। किताब की प्रस्तावना में उन्होंने एक बहुत महत्वपूर्ण बात पर जोर दिया है वह यह कि आर्थिक सुधारों के केंद्र में अगर महिलाओं को रखा जाए तो बेहतरीन परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं। उनका मूलमंत्र है कि महिलाएं मजबूत और महत्वपूर्ण संगठन खड़ा करने में सक्षम हैं। महिलाएं अपने अनुभवों की मदद से समस्याओं के व्यवहारिक हल निकाल सकती हैं और ऐसा करते हुए वे समाज और पर्यावरण को सकारात्मक रूप से बदलती हैं जो सम्मानजनक, अहिंसक और आत्मनिर्भर है।


महिलाओं की क्षमताओं पर अपने विश्वास को उन्होंने सच साबित करके भी दिखाया। आज देश भर में फैली सेवा से जुड़ी विभिन्न कार्यक्षेत्रों में सक्रिय सात लाख से अधिक महिलाएं न केवल अपनी आर्थिक स्थिति को मजबूत कर रही हैं बल्कि प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से देश की अर्थव्यवस्था में भी अपना योगदान दे रही हैं। इला जी की यह किताब इन्हीं जीवट महिलाओं की कहानी है। यह वही महिलाएं हैं जिनके काम को सरकारी तंत्र पहले काम का दर्ज़ा देने तक से इनकार करता था। इला जी ने अपने प्रयासों से असंगठित रूप से विभिन्न क्षेत्रों में होने वाले इन कामों को चिन्हित कर सबसे पहले विशेष रूप से महिला श्रम संगठन बनाया। यह कदम महिला अधिकारों के क्षेत्र में मील का पत्थर है।


अपनी इस किताब में इला जी ने बहुत प्रभावी तरीके से गरीब कामकाजी महिलाओं की आर्थिक सामाजिक परिस्थितियों का वर्णन किया है। सेवा संस्था की शुरुआत अप्रैल 1972 में शहरी क्षेत्र की अति गरीब कामकाजी महिलाओं के बीच हुई, लेकिन उसका कार्य क्षेत्र बाद में ग्रामीण इलाकों में भी फैल गया। आज यह संस्था गुजरात के अलावा बहुत से अन्य राज्यों में सक्रिय है और लाखों महिलाओं को जीने का हौसला और रास्ता दिखा रही है।


'We are poor but so many' पढ़ना कम से कम मेरे लिए एक आंख खोल देने वाला सा अनुभव रहा। इसमें कपड़ा मिलों से कूड़े के रूप में निकलने वाली चिंदियां बीनने, उन चिंदियों को सिल कर कपड़े तैयार करने, कबाड़ बीनने, रेहड़ी लगा कर सब्जी बेचने जैसे श्रमसाध्य काम करने वाली महिलाओं के संघर्षपूर्ण जीवन का चित्रण झकझोर देता है। पेट की आग बुझाने के लिए शहरों की ओर पलायन करने वाले दिहाड़ी मज़दूर परिवार, उनकी महिलाएं, बच्चे किन हालातों में रहते हैं, कैसे एक-एक दिन का जीवन जीने की लड़ाई लड़ते हैं या कच्छ के सूखेपन को कड़ाई के रंगीन धागों से सजाने वाली महिलाओं को घर से निकल कर अपनी कला को बाजार तक पहुंचाने की जद्दोजहद में परिवार के किन दबावों को झेलना पड़ा, उन सब का जीवंत खाका इस किताब में है। रन ऑफ कच्छ के वीरान तटीय इलाके में नमक बनाते परिवारों की आर्थिक जद्दोजहद बहुत साफ तरीके से समझा देती है कि देश की आर्थिक नीतियों में बहुत सारे तबके हाशिए पर ही रह गए हैं। हाशिए पर खड़ी महिला श्रमिकों को आत्मनिर्भर बनाने की कोशिशों की कहानी है यह किताब।


प्रस्तावना में ही एक और बहुत ही महत्वपूर्ण पहलू की ओर ध्यान दिलाते हुए इला जी ने सांप्रदायिक दंगों को गरीबों का सबसे बड़ा दुश्मन करार दिया है। अपने अनुभवों के आधार पर उनका मानना है कि किसी भी दूसरे कारणों की तुलना में सांप्रदायिक वैमनस्यता गरीबों पर बहुत बेरहमी से मार करती है। सेवा में काम करने के दौरान इला जी ने इस बात को पूरी शिद्दत से महसूस किया कि दंगों की आंच सबसे ज्यादा सबसे गरीब और कमजोर तबके को जलाती है। जरा कल्पना कीजिए उस महिला के दर्द को जो कई साल की मेहनत के बाद सेवा बैंक से कर्ज़ ले कर रहने के लिए एक छोटा घर बनाती है जो एक ही रात में दंगे की भेंट हो जाता है या उस औरत का दुख जिसकी कमाई का साधन कर्ज़ पर ली गई सिलाई मशीन दंगाइयों की मशाल के हवाले हो जाए। यह सच्ची दुनिया की कहानियां हैं जिन्हें इला जी ने इस किताब के जरिए सुनाने की कोशिश की है।


यह किताब महिलाओं के बीच किए गए उनके कामों का लेखा-जोखा होने के साथ हमारे समाज के जटिल खांचे को समझने के लिए एक बहुत अच्छी अध्ययन सामग्री है। इला जी ने बहुत ही संवेदनशील तरीके से राजनीति, अर्थव्यवस्था और जातिगत भेदभाव में लिपटी हमारी सामाजिक व्यवस्था के ताने-बाने को बहुत पैनेपन के साथ देखा, समझा और फिर कामकाजी गरीब महिलाओं को साथ ले कर उन्हीं के अनुभवों की मदद से आगे बढ़ने के रास्ते बनाए।


आज के दौर में हर कोई माइक्रोफाइनेंस की बात करता है लेकिन इलाजी ने कई साल पहले ही इसकी संभावना को पहचान लिया था और उसी का परिणाम था सेवा बैंक। इस बैंक की स्थापना ने कई मायनो में कई मिथकों को तोड़ा। बिल्कुल निचले आर्थिक तबके की महिलाओं की छोटी-छोटी बचत एक बैंक का मजबूत आधार बन सकती है यह बात ही अपने आप में अनूठी थी। अनिश्चित कमाई वाली महिला श्रमिकों पर भरोसा करके बैंक खोलने जैसा बड़ा कदम उठाना इला जी की मजबूत इच्छाशक्ति को दिखाता है। आर्थिक सलाहकारों ने इस फैसले को बेवकूफी भरा करार दिया था, लेकिन आज सेवा बैंक की सफलता सबके सामने है। सेवा बैंक से ऐसी महिलाओं को कर्ज़ मिलता है जिन्हें मुख्यधारा के बैंक कर्ज़ देना तो दूर आस-पास भी न फटकने दें।


यह किताब हमारे समाज के इतने सारे पहलुओं को छूती हुई निकलती है कि इसे संपूर्णता के साथ ले कर समीक्षा कर पाना मेरे लिए मुश्किल हो रहा है। इस किताब के बारे में एक समीक्षक का कहना है कि, ' अगर आपको प्रेरणा लेनी है तो यह किताब पढ़िए। अगर आप जानकारी चाहते हैं तो यह किताब पढ़िए और अगर आप गरीबों को संगठित कैसे किया जाए यह जानना चाहते हैं तो यह किताब पढ़िए।' मुझे लगता है कि देश को समझने और उसे बेहतर बनाने की नियत रखने वाले हर जागरूक नागरिक को यह किताब पढ़नी चाहिए।