जनवरी 07, 2009

नए साल के बहाने

'इससे पहले कि बात टल जाए.....' रेडियो पर गुलाम अली ने अपनी दिलकश आवाज़ में गज़ल की शुरूआत जैसे मुझे चेताने के लिए ही की थी। अचानक मुझे याद आया कि नए साल में मेरा खुद से यह वादा है कि नियमित रूप से कुछ न कुछ लिखना जारी रखूंगी। लेकिन हालत देखिए, गुलाम अली साहब ने याद न दिलाया होता तो साल का पहला हफ्ता तो बस यूं ही गुजर जाता। सो इससे पहले कि वक्त टल जाए, कुछ बातें हो ही जाएं।

गया साल जाते-जाते उदासी भरी टीस दे गया, कुछ को आर्थिक तौर पर बरबाद कर गया और अधिकांश को आतंकित करके गया। आम आदमी कुछ दिन चीखने-चिल्लाने, इस-उस को दोष लगाने, कुछ को गरियाने के बाद कलपते दिल पर आने वाले साल के बेहतर होने की उम्मीद का फाहा रख कर शांत बैठ गया। दरअसल उम्मीद चीज़ ही ऐसी है। हम गहरे से गहरा दुख बेहतर कल की उम्मीद के साथ झेल जाते हैं, पल-पल सरकता समय भी हमें बीते वक्त के सुख-दुख को बिसरा आने वाले समय को आशा भरी नजरों से देखने के लिए तैयार करता है। शायद यही वजह है कि हर कोई यह जानते हुए भी कि नया साल बीत चुके बहुत सारे दिनों जैसा ही एक आम दिन है, उसे खास अहमियत देता है, उसका स्वागत करता है।

यहां सोनापानी में हम लोग हर साल 30-31 दिसंबर को कुछ खास तरीके से मनाने की कोशिश करते हैं। इन दिनों यहां बेतरह ठंड होती है। हालांकि दिन में चटखदार धूप खिली होती है लेकिन जहां शाम के चार बजे कि हवा बर्फीली होने लगती है, पाला गिरने के कारण ठंड और मारक होती है। लेकिन जब आप अलाव के आस-पास बैठे दिलकश संगीत का मज़ा ले रहे हों तो यह सर्दी लुत्फ भी उतना ही देती है। इस बार 30 दिसंबर को हमने मुंबई के अरण्य थियेटर ग्रुप के नए नाटक ‘द पार्क’ का प्रिमियर यानी पहला शो किया जो खासा पसंद किया गया। यह नाटक मानव कौल ने लिखा है जो इससे पहले ‘शक्कर के पांच दाने’, ‘पीले स्कूटर वाला आदमी’, ‘बल्ली और शंभू’, ‘इलहाम’ और ‘ऐसा कहते हैं’ जैसे कथ्य की दृष्टि से काफी सशक्त नाटक लिख चुके हैं। मुंबई, दिल्ली के नाटक जगत में उनके नाटक खासे चर्चा में रहते हैं।

उनके नए नाटक ‘द पार्क’ की चर्चा यहां न करके उसका अलग से रिव्यू देने की कोशिश मेरी रहेगी। 31 दिसंबर की शाम संगीत से लबरेज़ थी। यह एक खास तरह का संगीत था। इसमें दरअसल हिंदी के कई सारे हिंदी कवियों की उन कविताओं को गाया गया जिन्हें किसी न किसी नाटक में इस्तेमाल किया गया है। शब्द संगीत नाम से पेश की गई यह प्रस्तुति बहुत ही शानदार रही। अरण्य थियेटर ग्रुप के 14 युवा स्वरों ने जयशंकर प्रसाद, नागार्जुन, निराला के साथ-साथ गोरखपांडे, बल्ली सिंह चीमा जैसे समकालीन कवियों की रचनाएं गाईं। रंगमंचीय संगीत के पुरोधा ब.ब.कारंत की धुन में बंधी प्रसाद की रचना ‘बीती विभावरी’ से जब कार्यक्रम की शुरुआत हुई तो बस समां बंध गया। इसके बाद निराला की ‘बांधों न नाव इस ठांव बंधु’ और ‘बादल छाए, बादल छाए’ गाए गए। ‘बांधों न नाव’ को गोपाल तिवारी की प्यारी सी धुन में गाया गया। श्रोताओं में आठ-दस लोग विदेशी थे जो हिंदी नहीं जानते थे लेकिन गीतों की सुंदर धुनों ने उन्हें इस कदर बांधा कि उन्होंने लगभग तीन घंटे चले इस पूरे कार्यक्रम का पूरा आनंद उठाया। नागार्जुन की रचना ‘पांच पूत भारत माता के’ बच्चों के बीच खास तौर पर पसंद की गई। । गोपाल तिवारी ने अपना एक खूबसूरत गीत ‘रब्बा रोशनी कर तू' पेश किया जो बहुत पसंद किया गया।

नैनीताल वाले हमारे मंटूदा की धुन में बंधे कवि बल्ली सिंह चीमा जी के गीत ‘बर्फ से ढक गया है पहाङी नगर’ को जब गाया गया तो सोनापानी में हमारे साथ काम करने वाले लङके भी साथ-साथ गा रहे थे। दरअसल मुंबई में रहने वाला हमारा दोस्त गोपाल तिवारी सोनापानी की अपनी पिछली यात्राओं के दौरान उन्हें यह गीत याद करा चुका था। यह उन्हें इतना अच्छा लगता है कि अक्सर रसोई से समवेत स्वर में इस गाने की आवाज आती रहती है। अब तक संगीत के नाम पर फिल्मी गीतों को ही जानने वाले इन लङकों को बेहतर संगीत को जानते और उसका आनंद लेते देखना अच्छा लगता है। युवा जोशीली आवाजों पर तैरते गोरखपांडे के गीत ‘समय का पहिया चले रे साथी’ ने माहौल में गर्माहट भर दी। गोरखपांडे का यह गीत समय के बारे में कहता है…।
रात और दिल, पल-पल छिन-छिन आगे बढता जाए
तोङ पुराना नए सिरे से सब कुछ गढता जाए

इस उम्मीद के साथ कि पुराना जो सङ चुका है, अप्रासंगिक हो चुका है टूटेगा उसकी जगह कुछ नया रचा जाएगा जो अच्छा होगा, सच्चा होगा, आप सभी को नया साल मुबारक हो।