नवंबर 22, 2007

औरतें

संभव है कि एक अकेली औरत
तनी रहती है पूरी सैनिक सत्ता के आगे
तमाम बंदिशों के बाद भी
जबकि सहम जाती हैं ज्यादातर लङकियां
गलत के आगे, एक हल्की डांट भर से

एक औरत नहीं झुकती कट्टरपंथियों के आगे
अत्याचार और विरोध के बावजूद
लिख देती है, वो सब जो लिखना चाहती है
जबकि बहुत सी लङकियां
पढना तक छोङ देती हैं
बङों की मर्जी के मुताबिक

जंग से बरबाद देशों में भी औरतें
बचा ही लेती हैं जिंदगी के टुकङे
और बनाती हैं घरौंदे जले मकानों में
जबकि चुनती हैं कुछ लङकियां
जल मरने का आसान रास्ता
जिंदगी से लङने की जगह

6 टिप्‍पणियां:

स्वप्नदर्शी ने कहा…

bahut achchi kavitaa hai. shayaad auratei un par thopi huyi samajikta ka jhood pahachaan jaatii hai. kachchi umr me ye pahchan nahi hoti.

डाॅ रामजी गिरि ने कहा…

"एक औरत नहीं झुकती कट्टरपंथियों के आगे
अत्याचार और विरोध के बावजूद
लिख देती है, वो सब जो लिखना चाहती है"

--तस्लीमा के वर्तमान संघर्ष के परिपेक्ष्य मे आपकी ये रचना बहुत ही सटीक है .बेहतरीन रचना दीपा जी.

Akash Deep Sinha ने कहा…

दीपा जी,

आपकी यह कविता आज के माहौल पर एकदम सटीक बैठती है। अगर आपके इस प्रयास से महिला समाज का छोटा सा तबका भी प्रभावित होता है तो बहुत खुशी होगी।

शुभकामनाओं के साथ।
आकाशदीप सिन्हा

neelima garg ने कहा…

beautiful poem...conveyed ur thoughts impressively...

महेन ने कहा…

दीपा जी, आपके ब्लोग पर आया था हिसालू-काफल पढ़कर पहाड़ीपना पहाड़ीपने की ओर खींच ही ले जाता है अकसर, मगर जब पढ़ना शुरू किया तो अच्छा लगा। अभी तक जितना भी पढ़ा गंभीर लगा और यह कविता पढ़कर मैं आपका मुरीद हो गया। औरत ने औरत पर लिखी, मगर किसी भी तौर पर मुझे इसमें फ़ेमिनिस्म की गंध नहीं आ रही।
शुभम।

How do we know ने कहा…

Wah!!! Mazaa aa gaya padh kar!!