(उसी फटती डायरी से अलग हुए एक और पन्ने पर लिखी कुछ पंक्तियां)
लिखा जा चुका है सब पर,
धरती, आकाश और इन दोनों के बीच
मौजूद हर चीज़ पर
जिंदा आदमी से जुड़ी-अनजुड़ी
हर चीज़ पर
सुख इतना सारा मन के अंदर का
सब फैल चुका कागज़ पर
सुख बसंत सा और न जाने कितनी
सुखद उपमाओं वाला,
और दुख तो जैसे
अनवरत बहती नदी कागज़ पर
मरते, बीमार, असहाय, सहमें
लोगों का दुःख भी उनके जाने बिना ही
दुबका है किताबों में
बताता है बड़े लोगों राजपुरुषों को
देखो मैं ऐसा हूं उन अभागे लोगों के बीच
विरक्ति भी, भाव भी, प्रेम भी
अपने हर संभव कोण में
ढल चुके हैं अक्षरों में
कभी-कभी तो मन भी हार जाता है
इतने व्यवस्थित किताबी सुख-दुख से
अनगढ़ा मिट्टी के लौंदे जैसा दुख
और कुछ वैसा ही सुख भी
अब जबकि कम होती जा रही हैं
अनुभूतियां दिन ब दिन,
किताबों में छपने के लिए
नए-नए अक्षर गढ़े जा रहे हैं
समय के छापेखाने में
थोड़े से दिन और हो जाएंगे जब
तब शायद ये सब रह जाएंगे सिर्फ किताबों में!
अक्टूबर 20, 2010
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9 टिप्पणियां:
कविता जैसा कुछ नहीं ....कविता है यह दीपा जी. बहुत अच्छी कविता. मैंने कितनी बार अनुरोध किया आपसे अनुनाद के लिए कुछ दीजिये पर.....शायद अनुनाद इस लायक न लगता हो आपको.
very true
बहुत अच्छी कविता. वाह !
पढ़ रहा हूँ आपकी कविता ।
.......अब जबकि कम होती जा रही हैं
अनुभूतियां दिन ब दिन,
किताबों में छपने के लिए
नए-नए अक्षर गढ़े जा रहे हैं
समय के छापेखाने में
....अच्छी कविता.
अंतिम पक्तिया.कविता का सार कह देती है...........अद्भुत !!!
दीपा जी,
आप तक पहुँचने का रास्ता डॉ.अनुराग जी की चिट्ठाचर्चा दिनाँक 13-जनवरी-2011 से मिला, बहुत ही अच्छा लिखा है आपने।
आपके ब्लॉग पर आकर हिमालय की वादियों की सैर कर ली हैं अब बेरियों का स्वाद लेने आता रहूँगा।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
दीपा जी,
कविता बहुत कुछ कह रही है कविता के बारे में। यही सब कुछ हो रहा है । कृपया मेरे ब्लाग पर भी कभी नजर डालें । harish-joshi.blogspot.com
अब जबकि कम होती जा रही हैं
अनुभूतियां दिन ब दिन,
किताबों में छपने के लिए
नए-नए अक्षर गढ़े जा रहे हैं
समय के छापेखाने में
थोड़े से दिन और हो जाएंगे जब
तब शायद ये सब रह जाएंगे सिर्फ किताबों में!
सुंदर भाव
Bahut sundar kavita!
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