मई 02, 2011

नीमा


इन दिनों जब भी शाम को ठंडी हवा को बांज की पत्तियों के साथ सरगोशियां करते सुनती हूं नीमा की याद अनायास ही आ जाती है। मैं जब पहाड़ों के इस खूबसूरत मौसम का मज़ा ले रही हूं वो बेचारी पहाड़ की लड़की देस की गरम हवा में झुलस रही है। नीमा का मायका मेरे पड़ोस में है, उसकी शादी दो साल पहले हुई थी तब से वह अपने ससुराल मथुरा में रहती है। मुझे इस गांव में रहते हुए अब सात साल से ज़्यादा अरसा हो गया है, लेकिन मेरे पड़ोस में नीमा नाम की कोई लड़की रहती है इसका पता मुझे चारेक साल पहले ही लगा। दरअसल गांव की एक शादी में दुल्हन को मेहंदी लगाने की ज़िम्मेदारी मैंने ले ली थी, जिसके लिए अगले दिन शाम को उसके घर जाना था लेकिन अंधेरे में अकेले कैसे लौटूंगी, मुझे यह डर सता रहा था। महिला संगीत के दौरान जब मैं अपनी यह समस्या बता रही थी तो कुछ लड़कियों के बीच में से एक दुबली-पतली सी लड़की तपाक से बोली, "अरे बोज़्यू (पहाड़ में भाभी के लिए संबोधन), डर क्यों रहे हो, मैं छोड़ दूंगी आपको घर। मैंने पहली बार उस लड़की को देखा था, मैंने कहा, "फिर तुम्हें भी तो घर छोड़ने जाना पड़ेगा किसी को….कहां रहती हो?" मेरे जवाब से उसके चेहरे पर साफ नागवारी के भाव उभरे। "क्यों मुझे नहीं पहचान रहे हो बोज्यू, मैं नीमा हूं आपके पड़ोस में तो रहती हूं।"


यह पहली बार नहीं था कि मुझे अपने आसपास के लोगों से कोई मतलब नहीं रखने के शहरी रवैये के चलते शर्मिंदा होना पड़ा था...इसलिए तुरंत झेंपते हुए सफाई दी, "अरे नीमा तू है...बहुत दिनों बाद दिख रही है इसलिए पहचान नहीं पाई।" जबकि सच तो यह था कि मैंने सचमुच उसे पहली बार देखा था और पड़ोस में रहने वाली बात तो और भी चकराने वाली थी क्योंकि जहां मैं रहती हूं वहां चारों ओर सिर्फ जंगल है और दूर केवल एक घर नज़र आता है जहां रहने वाले केयरटेकर के परिवार को मैं जानती थी इसलिए पता था कि वहां नीमा नाम की कोई लड़की नहीं रहती। बहरहाल दूसरे दिन शाम को शादी में मैं जब दुल्हन के हाथ में मेंहदी लगा रही थी तो पिछले दिन की तरह उस दिन भी आसपास की कई सारी लड़कियां वहां जमा थीं जो दुल्हन की सहेलियां थीं। सबसे ज़्यादा चुहलबाजी नीमा ही कर रही थी। दुल्हन के हाथ में मेरी लगाई मेहंदी सराहते हुए उसने कहा, "बोज़्यू मेरी शादी में भी मेहंदी आप ही लगाना....ठीक है?" सारी लड़कियां ढकती-छिपाती शर्मिली हंसी के बीच उसे झिड़कते हुए कहने लगी, "छि रे...कैसी है ये नीमा...देखो तो कैसी बेशर्म की तरह अपनी शादी की बात कर रही है। नीमा तुरंत पलट कर बोली, "क्यों रे..तुम लोग नहीं करने वाले हो क्या शादी? इनके सामने क्या शर्माना...हैं ना बोज़्यू?  मैं चुपचाप हंसते हुए उनकी बातें सुन रही थी।


वापस लौटते हुए जब मैं नीमा से बात करने लगी तब मुझे अंदाज़ा हुआ कि शादी उसके लिए युवावस्था में कदम रख रही एक लड़की की स्वाभाविक इच्छा नहीं थी वो उसकी एकमात्र उम्मीद थी उस माहौल से निकलने की जहां उसकी उम्र की खूबसूरती का साथ देने के लिए कुछ भी नहीं था। उसी ने बताया कि मेरे घर की पीछे से ऊपर की ओर बांज के जंगल के बीच जो पगडंडी जाती है उसी के मुहाने पर जो घर है वहीं वह रहती है। "घर में कौन-कौन हैं?" मुझे सचमुच खुद पर शर्म आ रही थी कि मेरे इतने पास में कोई परिवार रहता है जिसके बारे में इतना समय यहां रहने के बावजूद मुझे कुछ नहीं पता। "बाबू तो घर छोड़ कर चले गए, ईजा है, एक भाई दिल्ली में नौकरी करता है,  बड़ा भाई है उसका पैर खराब है इसलिए बेकार बैठा है।
"तू स्कूल जाती है?"
"नहीं तो...पहले जाती थी नौ में थी तो ददा का पैर टूट गया। ईजा रोज उसे दिखाने कभी हल्द्वानी, कभी अल्मोड़ा ही जाने में रहने वाली हुई...फिर घर का कौन करता...भैंस भी तो ठैरी...दूध देने वाली हुई नहीं..खाली घास लाने का काम बढ़ाना हुआ उसने भी...फिर कैसे जाती स्कूल इसलिए छोड़ दिया। अब तो तीन-चार साल जो हो गए स्कूल छोड़े।" खालिस कुमाउंनी लटक वाली हिंदी में उसने अपनी स्थिति बयान की।


मुझे छोड़ कर जब वो जाने लगी तो उसकी नानुकुर के बावजूद मैंने उसे अकेले नहीं भेजा। अगले दिन खोजबीन करने पर पता चला कि उसके भाई की, जो अच्छा-खासा स्वस्थ जवान लड़का था, तीन चार साल पहले गिरने की वजह से एक पैर की हड्डी टूट गई थी जिसे जोड़ने के लिए डॉक्टरों ने स्टील की रॉड डाल दी थी, फिर हुआ ये कि कुछ अरसे बाद उसी पैर में दोबारा चोट लग गई जिससे अंदर पड़ी रॉड टूट गई। गरीबी के चलते पैर का इलाज अच्छी तरह नहीं हो सका और एक बड़ा घाव बन गया जो हमेशा रिसता रहता था। जवान लड़का था, इतने समय तक पैर के चलते लाचार हो जाने से वह अवसादग्रस्त हो गया था। धीरे-धीरे जड़ जमाते स्रिजोफेनिया से वह बहुत आक्रामक हो गया था और जब-तब गुस्से में मां और बहन को मारने पर आमादा हो जाता था। कभी-कभी तो मां-बेटी को घर से भाग कर जंगल में छिप कर जान बचानी पड़ती थी। थोड़ी ही दूरी पर उनके रिश्तेदारों के घर थे लेकिन आपसी राग-द्वेष रिश्तों पर भारी पड़ने की वजह से उनका कोई सहयोग नहीं मिलता था।


उस दौरान उसके पैर का घाव कुछ ज़्यादा ही रिसने लगा था तो बेचारी मां जब उसे ले कर अल्मोड़ा दिखाने गई तो किसी डॉक्टर ने उसे डरा दिया कि ये तो गैंगरीन हो गया है अब पैर काटने के सिवा कोई चारा नहीं है। यह बात नीमा से मेरी पहली मुलाकात से कुछ दिन पहले की ही थी इसलिए नीमा भाई को ले कर बहुत परेशान थी। इसे संयोग ही कहना होगा कि अगले ही दिन हल्द्वानी के एक अस्थि रोग विशेषज्ञ यूं हीं कहीं से घूमते-फिरते हमारे यहां कुछ देर के लिए आए। जैसे ही पता लगा कि वह हड्डियों के डॉक्टर हैं उन्हें नीमा के भाई के बारे में बताया गया तो उन्होंने कहा कि वह  मरीज़ को देखना चाहेंगे। उसका मुआयना करने के बात पाया गया कि इलाज संभव है। खैर लंबी कहानी का लब्बोलुआन ये कि दो ऑपरेशन के बाद उसका पैर बिल्कुल ठीक हो गया और वह चलने फिरने लगा


अब नीमा और उसकी ईजा से मेरा अक्सर रोज़ ही मिलना हो जाता था और उनसे अजब सा मोह भी हो गया था। उनकी बातें सुन-सुन कर मुझे औरतों के दुखों की रोज नई सीमाएं तय करने पर मजबूर होना पड़ता था। अगले एक-डेढ़ साल में उनके हालात कुछ बेहतरी के लिए बदले। नीमा के भाई की दिमागी बीमारी का इलाज भी अब चालू हो गया था और उसके व्यवहार में काफी सुधार आ गया था। नीमा की ईजा रिश्तेदारी में जहां-तहां हाथ-पांव जोड़ मिन्नतें करने के बाद उसके लिए एक रिश्ता जुटा लाई। लड़की की शादी के बहाने नाराज़ हो कर दूसरे गांव में रह रहे उसके बाबू भी घर लौट आए थे। उनके घरेलू मसले में अपनी आत्मियता के बल पर जितना भी हक जता सकती थी उसका पूरा इस्तेमाल करते हुए मैं कम से कम इतना तो सुनिश्चित करने में कामयाब रही थी कि नीमा किसी दबाव में आ कर शादी न करे, लड़का उसे पसंद हो, व्यसनी न हो और एक अदद ठीक-ठाक नौकरी उसके पास हो। नीमा की शादी के सामान की खरीददारी मैंने जिस मन से और जिस खुले दिल के साथ की मैंने खुद की शादी के लिए भी नहीं थी, शायद ये मेरा अपनी इतनी नज़दीकी पड़ोसी के दुखों से इतने समय तक अनजान रहने का अपराधबोध कम करने का ज़रिया था।


बहरहाल, नीमा खुश थी उसे लड़का पसंद आया था। ससुराल में खेती-बाड़ी होती थी और वो लोग संपन्न थे। नीमा जब ससुराल से पहली बार आई थी तो उसने खूब हंस-हंस कर वहां के लोगों के बोलने की नकल करके बताई। "बोज्यू, पता नही हो क्या बोलते हैं मुझे तो कुछ समझ नहीं आता। मेरे ससुरजी कहते हैं हमारी बहू तो अंग्रेज़ी बोलती है, देखो तो मेरी हिंदी को जो अंग्रेज़ी कह रहे हैं...अंग्रेज़ी जो बोल दूंगी तो पता नहीं क्या समझेंगे।" और फिर वही अपनी वही चिरपरिचित खिलखिल हंसी। पता नहीं इतने कष्टों, दुखों के बीच भी वह अपनी सहज हंसी को कैसे बचा ले गई थी। लेकिन उसी हंसी के चलते मुझे डर भी लगता था कि कहीं इसके नीचे फिर कोई दुख तो नहीं छुपा रही है ये लड़की।
इसलिए पूछा, "तू सचमुच खुश तो है न नीमा?”

अबकी बार उसने मेरी आंखों से आंखे मिलाते हुए बहुत शांत आवाज में कहा, "हां बोज़्यू, अब मैं खुश हूं। वो मेरा बहुत ध्यान रखते हैं, उनके यहां औरतें घूंघट करती हैं लेकिन मैंने उनसे कहा कि मुझसे सिर नहीं ढका जाता तो उन्होंने कहा कि ठीक हैं तो मत ढको। उनके घर में औरतों से खेतों का काम नहीं कराते, वो सिर्फ घर का कामकाज करती हैं। यहां घर-बण-जानवरों के साथ इतना खटने के बाद मुझे वहां की जिंदगी बहुत आराम की लगती है। वहां सब मुझे बहुत प्यार करते हैं, सोचते हैं मैं छोटी हूं...पूछते हैं मुझे बाज़ार से कुछ सामान तो नहीं मंगाना, इनकी छुट्टी होती है तो मुझे घुमाने भी ले जाते हैं देखो इतनी जल्दी मैं वृंदावन भी घूम आई जबकि शादी से पहले मैं सिर्फ तीन बार गांव से बाहर कहीं गई थी, दो बार तल्ला रामगढ़ और एक बार अल्मोड़ा। बोज़्यू मैं खुश हूं लेकिन....."

"...लेकिन क्या नीमा?" मेरा दिल एक बार सहम सा गया।

"बोज्यू वहां मुझे जंगल की बहुत याद आती है, सच्ची कहूं वहां बहुत कम पेड़ हैं। दूर तक खेत ही खेत हैं बीच-बीच में पेड़ों की पतली सी लाइन। पेड़ भी पता नहीं कौन-कौन से हैं बांज जैसा कोई नहीं। मुझे सपने आते हैं कि मैं भैंस को घास चराने जंगल गई हूं और बांज के पेड़ के नीचे लेटी हूं। बोज्यू सच्ची बहुत नराई लगती है कहा जंगल की मुझे"....कहते-कहते आंख भर आई नीमा की। अब तक नीमा को जानते हुए मुझे कुछ साल हो चुके थे, अपने घर में मां-बाप के कलह, उनके झगड़ों के चलते जगहंसाई, चाचा-ताई के परिवार की उपेक्षा और प्रताड़ना भरे व्यवहार, भाई की बीमारी जैसी कई मुश्किल बातें उसने कई बार मुझसे साझा की थी लेकिन बिल्कुल तटस्थ भाव से जैसे किसी और की तकलीफों की बात कर रही हो। आज पहली बार उसकी आंखों में आंसू थे....किसके लिए? जंगल के लिए।


है न अजीब सी बात? शायद नहीं....वो सिर्फ जंगल नहीं होगा नीमा के लिए। सोचो तो नीमा जैसी घुटनभरी परिस्थितियों में रहने वाली किसी लड़की के लिए  क्या मायने रहे होंगे जंगल के? एक जगह जहां वो तमाम परेशानियां कुछ देर के लिए ही सही भूल सकती हो, शायद कुछ पेड़ हों जिनके साथ वह अपने सपने साझा करती हो, अपने दुख बांट कर हल्का करती हो। वरना हंस-हंस कर हर दुख सह जाने वाली नीमा प्यासे को पानी की तरह अपने नए-नए मिले सुखों के बीच एक जंगल को याद करके क्यों रोती। मेरा गला भर आया था समझ नहीं आ रहा था उसे क्या कहूं।


फिर आंसू पोछ कर अपनी उसी शरारती हंसी के साथ उसने कहा, "अपना जंगल मुझे अब वहीं बनाना पड़ेगा। इस साल बरसात में मैंने अपने घर के आगे छह-साल पेड़ लगा दिये हैं, एकाध तो फल के पेड़ हैं बाकी पता नहीं किसके थे, मुझे अच्छे लगे मैंने रोप दिए। सब जम गए हैं। बोज्यू बांज जम जाएगा क्या वहां?  ईजा कह रही थी खुबानी, पुलम तो नहीं जमेंगे वहां। इस बार आढ़ू और बांज लगा कर देखूंगी क्या पता लग ही जाएं। बोज्यू वहां हमारा घर खूब बड़ा है, पीछे को एक खिड़की खुलती है वहीं रोपूंगी बांज........नीमा बोलती जा रही थी और मैं चुपचाप सुन रही थी।

पता नहीं नीमा ने पिछली बरसात में अपने पहाड़ के पेड़ रोपे या नहीं....फिलहाल गर्मियां आ चुकी हैं और मैं पहाड़ की ठंडी हवा के बीच नीमा को याद कर रही हूं।

32 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

ऐसी लड़की का जंगल से भला ज्यादा आत्मीय कौन होगा। वह उसके अंतर का विस्तार ही तो है।

pallav ने कहा…

Badhiya.

डा० अमर कुमार ने कहा…

.बाँध कर रखने वाला एवँ रोचक वृताँत ।
विषय से हट कर एक जिज्ञासा :
पहाड़ों पर मुन्नी के बाद अधिकतर लड़कियों को नीमा का सँबोधन मिलता है, ्स्थानीय स्तर पर इसके शाब्दिक सँदर्भ क्या होंगे ?

Pratibha Katiyar ने कहा…

Wah!

दीपा पाठक ने कहा…

शुक्रिया मित्रों हौसलाअफज़ाई के लिए। अमर जी आपने पूछा तो मैंने भी नाम पर गौर किया, दरअसल नीमा यहां खासतौर पर कुमाऊं में बहुत ही आम नाम है, गुड़िया या मुन्नी के बतौर इस्तेमाल होने वाला संबोधन नहीं। अब ऐसा क्यों है इसका कोई अंदाज़ा मुझे नहीं है क्योंकि अगर यह नीम के पेड़ के नाम पर भी है तो नीम यहां आमतौर पर होता ही नहीं। बहरहाल टिप्पणी के लिए शुक्रिया।

डॉ .अनुराग ने कहा…

ग्यारवी या बारहवी में था तो अक्सर सोचता था ये शिवानी की कहानियो में पहाड़ बार बार क्यों आ जाता है ...कुछ आदते भीतर बस जाती है ...पहाड़ भी.....हॉस्टल में एक दोस्त था .अक्सर डिप्रेस हो जाता था ...उसके कमरे की बोल्कोनी में जब से ढेर सारे पेड़ पौधे आये थे ...तब से उसका मन रमने लगा था ......
नीमा से स्नेह हो जाता है .ऐसे रेखा चित्र दरअसल असल होते है ..उनके कई हिस्से आस पास बिखरे मिलते है .....

पारुल "पुखराज" ने कहा…

बहुत अच्छी पोस्ट है - दीपा

उम्मीद है नीमा ने अपने पहाड़ के सारे पेड़ लगाये होंगे और दुआ कि वे सब के सब वहां हरिया गये होंगे ।

दीपा पाठक ने कहा…

अनुराग जी और पारुल पोस्ट पढ़ने के लिए फुर्सत निकालने का शुक्रिया। यह बिल्कुल सही कहा आपने कि पहाड़ आत्मा में ही बस जाते हैं। पहाड़ों से दूर रह रहे किसी भी पहाड़ी से बात कीजिए, वह अपने जंगल, हवा और ठंडे पानी को कभी भी भूल नहीं पाता।

स्वप्नदर्शी ने कहा…

Bahut badhiya post Deepa.
Do saal pahale jab mei Oregon aayee thee, to dher se ped yahnaa hamaare ghar ke jaise hai, lagbhag har rang ke buraansh.
all together they make me home sick often.

दीपा पाठक ने कहा…

धन्यवाद सुषमा। मैंने सुना है Oregon बहुत सुंदर जगह है।

Pushpendra Vir Sahil पुष्पेन्द्र वीर साहिल ने कहा…

बहुत अच्छी पोस्ट है दीपा... आपका प्रोज भी पोयट्री की तरह है...

शूरवीर रावत ने कहा…

प्राची के पार की मार्फ़त आपके ब्लॉग पर पहुंचा हूँ. शिवानी, शैलेश मटियानी, पानू खोलिया, गंभीर सिंह पालनी, मृणाल पाण्डे, मनोहर श्याम जोशी, हिमांशु जोशी आदि लेखकों तथा पिछले बीस साल से उत्तरा को पढने के बाद आज आपके लेखन से परिचय हुआ, सुखद लगा. शिल्प की दृष्टि से आपकी कहानी मन को आल्हादित करती है. बहुत कुछ बयां करती है आपकी यह कहानी.आप इसी भांति लिखती रहें यही कामना है.
- मेरा ब्लॉग है ---------- baramasa98.blogspot.com
- बारामासा की पोस्ट पर प्रतिक्रिया देकर सदैव अपना सहयोग बनाये रखें और यदि हो सके तो 'अनुसरण' करने का कष्ट करें. इन्ही शुभकामनाओं के साथ.......

Manu ने कहा…

Deepa Ji, really heart touching,
Aapne pahar ki ladki ke feelings ko shabdon mein pirokar ek maala taiyaar ki hai.

Kahani padhte samay aisa lag reha tha jaise ki hum khud hi us gaon ke hai or NEEMA ko achhi tarah se jaante hai, or ye sab kuch hamare nazaro ke saamne ho reha hai, or aisa lag reha tha ki hum ye sab padh nahi rahe hai balki hum ye dekh rahe hai.

Apni bhawanao ko hamare paas lane ke liye dhanyabaad.

दीपा पाठक ने कहा…

पुष्पेंद्र, सुबीर जी और मनु जी ब्लॉग पढ़ने और बढ़िया प्रतिक्रियाओं के लिए शुक्रिया। सबसे पहली बात यह कि ये कहानी बिल्कुल नहीं है, यह बिल्कुल सच्ची बात है। नीमा सचमुच मेरे पड़ोस में रहने वाली लड़की है जो अब मथुरा में रहती है और वह अपने जंगल को याद करके मेरे सामने सचमुच में रोई थी।

Manu ने कहा…

Deepa ji, reply karne ke liye dhanywad.neema ko samajhte samajhte meri wife bhi paharo k jungle main khoti chali gai.she impressed very much. thanks again.

आशुतोष उपाध्याय ने कहा…

अब चाहे कुछ कह लो, तुम्हारा ये संस्मरण कहानी के ही खाते में जाएगा दीपा!!

महेन ने कहा…

यह मेरा आलस ही कहलाएगा कि मैं यह पोस्ट अब देख रहा हूँ। मुझे नहीं पता था कि कोई पहाड़ी शहर जाकर पहाड़ और जंगल को भी याद करता होगा… मैनें तो अपने माँ-बाबू को भी कभी जंगल की याद करते नहीं सुना। आई एम मिसिंग नीमा…

दीपा पाठक ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
दीपा पाठक ने कहा…

आशुदा अब क्या बोलूं...पंचों की राय इसे कहानी मानने में है तो वही सही..:)। महेन शुक्रिया पोस्ट पढ़ने और टिप्पणी के लिए समय निकालने के लिए। आपकी बात का भी क्या जवाब दूं.....क्योंकि मुझे हमेशा लगता है कि जो लोग पहाड़ में रहने के बाद जब बाहर निकलते हैं तो उसका कुछ हिस्सा अपने साथ ही ले जाते हैं। खासतौर पर जिन लोगों ने वहां बचपन बिताया हो। मैं खुद पहले कभी पहाड़ में नहीं रही लेकिन मेरी मां ने अपने हिस्से का पहाड़ अपने जीवंत अनुभवों, किस्सों-कहानियों के जरिए इतने गहराई से हम बच्चों के अंदर बो दिया था कि हमें कभी लगा ही नहीं कि हम पहाड़‌ी नहीं हैं। पहाड़ी दिनचर्या में जंगल की एक अहम जगह होती है, छोटे बच्चे जानवरों को चराने के लिए, तो महिलाएं लकड़ी से ले कर घास तक सबके लिए जंगल की ही शरण में होती है। शायद यही वजह है कि जब पहाड़ याद करो तो जंगल खुदबखुद सामने आ जाता है। हम जहां भी रहे मैली धोतियों में बंधी पोटलियों में भट्ट-गहत-भांग और थैलों में गडेरी और माल्टा की शक्ल में पहाड़ किस्तों में ही सही हम तक पहुंचता रहता था और अम्मां उन पोटलियों को सूंघ कर कहती थी, "देख तो चीड़ की कैसी खूशबू आ रही है ...आहा!!!

ghughutibasuti ने कहा…

दीपा,कहानी या संस्मरण जो भी कहें बहुत सुंदर व मर्मस्पर्शी लगा.कौन पहाड़ी ऐसा होगा जो पहाड व जंगल को याद न करता हो? मुझे याद है नराई के बारे में लिखते हुए मैंने कहा था की नराई लगती ही मायके या पहाड़ जैसी चीजों की है.
नीमा के जीवन में सबसे सुंदर, सबसे सुखदायी पहाड़ ही रहा होगा.
'शायद यही वजह है कि जब पहाड़ याद करो तो जंगल खुदबखुद सामने आ जाता है। हम जहां भी रहे मैली धोतियों में बंधी पोटलियों में भट्ट-गहत-भांग और थैलों में गडेरी और माल्टा की शक्ल में पहाड़ किस्तों में ही सही हम तक पहुंचता रहता था और अम्मां उन पोटलियों को सूंघ कर कहती थी, "देख तो चीड़ की कैसी खूशबू आ रही है ...आहा!!!'
दीपा,मायका छोडने के बाद ये पोटलियाँ भी नहीं देखीं किन्तु उनकी सुगंध अब भी मन में बसी है.स्कूल से घर आने पर जिस दिन वह गंध घर के बाहर ही आ रही होती थी समझ जाती थी कि कोई गाँव से आया है और हमारे लिए थोड़ा सा पहाड लाया है.
इस बरसात में मन को भिगाने के लिए आभार.
घुघूती बासूती

दीपा पाठक ने कहा…

घुघुति बासुती जी आभार इस खूबसूरत टिप्पणी के लिए। आपके नाम से जाहिर है कि आप अपने हिस्से के पहाड़ को हमेशा अपने साथ ही रखती हैं।

Shardu Kumar Rastogi ने कहा…

Bahoot Khub, Deepa Ji.

Pahad ki seedhi sadi evam aatmee jindgi aur bahan ki mahilayo ke dwara jindgi ki taklifo ko jeevat ke sath haste hue saamna karne ka sundar chitran. Mujhe to Ramnagar aur Garur me apne bitaye hue bachpan ki yaad ya gaye.

Bahut se Subhkamnaye.

Shardu Kumar Rastogi.
Beira , Mozambique

दीपा पाठक ने कहा…

शुक्रिया शार्दु जी, पोस्ट पढ़ने और उस पर टिप्पणी के लिए फुर्सत निकालने के लिए।

baarish ने कहा…

Dear Deepa....I really liked your post and actually felt like I knew Neema personally ...

Unknown ने कहा…

such me deepa jee...wakai dil ko chu gyi puri kahani...yakeenan aat jangalon ka jo dayra simatataa ja rha hai..uske liye hum sbhi ko khaskar yuwa pidi se ki wo aage aaye aur sbhi ko is bare me jagruk karen..jb ak gavn ki ladki jise jagalon ki itni parwah hai to hume kyun nhi....

Aadividrohi ने कहा…

Dipuli -- aaj barson baad blog ki dunia mein bhatak raha hoon. Tere lekhan mein ek pavitra namee aur ooshma bachee hai, yeh kya ek chamatkaar naheen hai? Varna bhavishya ko lekar ancheenhi asuraksha ham mein se zyadatar logon ko ekdam "duniyadaar" naheeen bana deti? Phir Neema dekh bhi jaye to maanas par ankit naheen hoti. Bahut achha likha hai.

Unknown ने कहा…

nazaren tab hateen jab poora padh gaya....kaafi arse ke baad is tarah ka padhane mila...jo kuchh likhana chahata tha..takareeban aapke mitron ne likh chhoda hai....aasha hai ...aur kuchh naya padhne milega...blog achnak surfing me mil gaya...khushkismati samjhoonga...

Reena Pant ने कहा…

मुक्तेश्वर की रहने वाली मैं मुम्बई में सालो साल से पहाड़ के लिए तड़प रही हूँ।पहाड़ की हवा पेड़ों की खुशबु मैंआज भी महसूस करती हूँ।नीमा सभी सुखों के होते हुए भी खुश नहीं होगी ।मेरा दावा है।

Reena Pant ने कहा…

मुक्तेश्वर की रहने वाली मैं मुम्बई में सालो साल से पहाड़ के लिए तड़प रही हूँ।पहाड़ की हवा पेड़ों की खुशबु मैंआज भी महसूस करती हूँ।नीमा सभी सुखों के होते हुए भी खुश नहीं होगी ।मेरा दावा है।

Reena Pant ने कहा…

मुक्तेश्वर की रहने वाली मैं मुम्बई में सालो साल से पहाड़ के लिए तड़प रही हूँ।पहाड़ की हवा पेड़ों की खुशबु मैंआज भी महसूस करती हूँ।नीमा सभी सुखों के होते हुए भी खुश नहीं होगी ।मेरा दावा है।

saurabh bhatt ने कहा…

पहाड़ पर आप पहाड़ सा ही लिखती हैं.शान्त और निश्छल.

Rahul Goswami ने कहा…

आपका ब्लॉग कोई 7 8 सालों से बुकमार्क करके रखा था। आज पढ़ना शुरू किया।
बेहतरीन पोस्ट है।